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________________ मोक्ष और मोक्षमार्ग | २६१ भावात्मक चैतन्य या आनन्द मानने के लिए कोई आधार नहीं है । उनके मन्तव्यानुसार मोक्ष नित्य या अनित्य ज्ञान, सुख रहित केवल द्रव्य रूप से आत्म तत्त्व की अवस्थिति है । सांख्य और योगदर्शन सांख्य और योग ये दोनों पृथक्-पृथक् दर्शन हैं, पर दोनों में अनेक बातों में समानता होने से यह कहा जा सकता है कि एक ही दार्शनिक सिद्धांत के ये दो पहलू हैं। एक संद्धान्तिक है, तो दूसरा व्यावहारिक है। सांख्य तत्त्व मीमांसा की समस्याओं पर चिन्तन करता है तो योग कैवल्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों पर बल देता है । सांख्य पुरुष और प्रकृति के द्वंत का प्रतिपादन करता है। पुरुष और प्रकृति ये दोनों एक-दूसरे से पूर्ण रूप से भिन्न है । प्रकृति सत्व, रज और तम इन तीनों की साम्यावस्था का नाम है। प्रकृति जब पुरुष के सान्निध्य में आती है तो उस साम्यावस्था में विकार उत्पन्न होते हैं जिसे गुण-क्षोभ कहा जाता है। संसार के सभी जड़ पदार्थ प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं पर प्रकृति स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होती । ठीक इसके विपरीत पुरुष न किसी पदार्थ को उत्पन्न करता है और न वह स्वयं किसी अन्य पदार्थ से उत्पन्न है । पुरुष अपरिणामी, अखण्ड, चेतना या चैतन्य मात्र है । बंध और मोक्ष ये दोनों वस्तुतः प्रकृति की अवस्था हैं । १७ इन अवस्थाओं का पुरुष में आरोप या उपचार किया जाता है । जैसे अनन्ताकाश में उड़ान भरता हुआ पक्षी का प्रतिबिम्ब निर्मल जल में गिरता है, जल में वह दिखाई देता है, वह केवल प्रतिबिम्ब है, वैसे ही प्रकृति के बंध और मोक्ष पुरुष में प्रतिबिम्बित होते हैं । सांख्य और योग पुरुष को एक नहीं किन्तु अनेक मानता है, यह जो अनेकता है वह संख्यात्मक है, गुणात्मक नहीं है । एकात्मवाद के विरुद्ध उसने यह आपत्ति उठाई है कि यदि पुरुष एक ही है तो एक पुरुष के मरण के साथ सभी का मरण होना चाहिए। इसी प्रकार एक के बंध और मोक्ष के साथ सभी का बंध और मोक्ष होना चाहिए। इसलिए पुरुष एक नहीं अनेक है। न्याय-वैशेषिकों के समान वे चेतना को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानते हैं । चेतना पुरुष का सार है । पुरुष चरम ज्ञाता है । स्वरूप की दृष्टि से पुरुष, वैष्णव वेदान्तियों की आत्मा, जैनियों के जीव और लाईवनित्स के चिद अणु के सदृश है। सांख्य दृष्टि से बंधन का कारण अविद्या या अज्ञान है। आत्मा के वास्तविक स्वरूप को न जानना ही अज्ञान है । पुरुष अपने स्वरूप को विस्मृत होकर स्वयं को प्रकृति या उसकी विकृति समझने लगता है, यही सबसे बड़ा अज्ञान है । जब पुरुष और प्रकृति के बीच विवेक जागृत होता है- 'मैं पुरुष हूँ, प्रकृति नहीं, तब उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है। कपिल मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं करते । वे तथागत बुद्ध के समान सांसारिक दुःखों की उत्पत्ति और उसके निवारण का उपाय बतलाते हैं किन्तु कपिल के पश्चात् उनके शिष्यों ने मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन किया है । बन्धन का मूल कारण यह है-पुरुष स्वयं के स्वरूप को विस्मृत हो गया। प्रकृति या उसके विकारों के साथ उसने तादात्म्य स्थापित कर लिया है, यही बंधन है । जब सम्यग्ज्ञान से उसका वह दोषपूर्ण तादात्म्य का भ्रम नष्ट हो जाता है तब पुरुष प्रकृति के पंजे से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, यही मोक्ष है । सांख्यदर्शन में मोक्ष की स्थिति को कैवल्य भी कहा है । सांख्य दृष्टि से पुरुष नित्य मुक्त है। होने पर उसे यह अनुभव होता है कि वह तो कभी भी प्रस्तुत तथ्य का परिज्ञान न होने से वह अपने स्वरूप को कैवल्य और कुछ भी नहीं उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है । सांख्ययोगसम्मत मुक्ति स्वरूप में एवं न्याय-वैशेषिकसम्मत मुक्ति स्वरूप में यह अन्तर है कि न्यायवैशेषिक के अनुसार मुक्ति दशा में आत्मा का अपना द्रव्य रूप होने पर भी वह चेतनामय नहीं है। मुक्ति दशा में चैतन्य के स्फूरणा या अभिव्यक्ति जैसे व्यवहार को अवकाश नहीं है । मुक्ति में बुद्धि, सुख आदि का आत्यन्तिक उच्छेद होकर आत्मा केवल कूटस्थ नित्य द्रव्य रूप से अस्तित्व धारण करता है। सांख्य योग की दृष्टि से आत्मा सर्वथा निर्गुण है, स्वतः प्रकाशमान चेतना रूप है और सहज भाव से अस्तित्व धारण करने वाला है । न्याय-वैशेषिक के अनुसार मुक्ति MILIA विवेक ज्ञान के उदय होने से पहले भी वह मुक्त था, विवेक ज्ञान उदय बंधन में नहीं पड़ा था, वह तो हमेशा मुक्त ही था, पर उसे भूलकर स्वयं को प्रकृति या उसका विहार समझ रहा था । Jain Education International کے For Private & Personal Use Only * Jokes 2 000000000000 000000000000 10000 ·S.Bhaste www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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