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२४० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्य
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भारतीय अन्य दर्शनों में भी कर्म के स्थान पर अन्य विभिन्न अभिधाएँ अपनी-अपनी व्यवस्था लिए हुए हैं। कर्मग्रन्थ में इनका शब्दग्राही उल्लेख हुआ है
"माया, अविद्या, प्रकृति, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, भाग्य, मलपाश, अपूर्व, शक्ति, लीला आदि आदि ।
माया, अविद्या, प्रकृति ये तीन वेदान्त के शब्द हैं । अपूर्व शब्द मीमांसक दर्शन का है। वासना बौद्ध धर्म में प्रयुक्त है । आशय विशेषतः योग और सांख्य दर्शन में हैं। धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार विशेषकर न्याय वैशेषिक दर्शन में व्यवहृत है । देव, भाग्य, पुण्य, पाप प्रायः सब में मान्य रहे हैं।
इस प्रकार कर्म सिद्धान्त वैज्ञानिक निरूपण है। इसने अनेक उलझी गुत्थियों का सुन्दर सुलझाव दिया है। विभिन्न गम्भीर अनुद्घाटित रहस्यों को उद्घाटित किया था । कर्म-सिद्धान्त आत्म-स्वातन्त्र्य का बल भरता है । नवीन . उत्साह जगाता है।
गुलामी जीवन में कुंठा पैदा करती है फिर चाहे वह विशिष्ट शक्ति के प्रति हो या साधारण के प्रति । इस कंठा को तोड़कर कर्म-सिद्धान्त आत्म शक्ति के जागरण का मार्ग प्रशस्त करता है।
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जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य । तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए ॥
-बृहत्कल्पभाष्य ३९३८
एक अविरत (असंयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजान में । शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबंध में महान् अन्तर बताया है । अर्थात् तीव्र भावों के कारण जानकर हिंसा करने वाले को अपेक्षाकृत कर्मबंध तीव्र होता है।
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१ कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, पृ० २३
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