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________________ कर्म-सिद्धान्त : मनन और मीमांसा | २३६ 000000000000 000000000000 का सम्बन्ध है । प्रकृति जड़ है, पुरुष चेतन है। कर्मों की कर्ता प्रकृति है । पुरुष कर्म जनित फल का भोक्ता है । पुरुष के कर्म-फल-भोग की क्रिया बड़ी विचित्र है । "प्रकृति और पुरुष के बीच में बुद्धि है । इन्द्रियों के द्वार से सुख-दुःख बुद्धि में प्रतिबिम्बित होते हैं । बुद्धि उभयमुख दर्पणाकार है इसलिए उसके दूसरे दर्पण की ओर चैतन्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है। दोनों का प्रतिबिम्ब बुद्धि में पड़ने के कारण बुद्धि में प्रतिबिम्बित सुख-दुःख को आत्मा अपना सुख-दुःख समझती है। यही पुरुष का भोग है किन्तु बाह्य पदार्थों के प्रतिबिम्ब से उसमें विकार पैदा नहीं होता।" व्यवहार की भाषा में प्रकृति पुरुष को बांधती है । पुरुष में भेद-ज्ञान हो जाने से वह प्रकृति से मुक्त हो जाता है । यथार्थ में नाना पुरुषों का आश्रय लेने वाली प्रकृति ही बन्धन को प्राप्त होती है वही भ्रमण करती है। वही मुक्त होती है । पुरुष में केवल उपचार है । जैसे नर्तकी रंगमंच पर अपना नृत्य दिखाकर निवृत्त हो जाती है। इसी प्रकार पुरुष भेद-ज्ञान प्राप्त होने पर वह अपना स्वरूप दिखाकर निवृत्त हो जाता है । बौद्ध दर्शन और वासना बौद्ध दर्शन प्रत्येक पदार्थ को क्षणिक मानता है फिर भी उन्होंने कर्मवाद की व्यवस्था सुन्दर ढंग से दी है। बुद्ध ने कहा आज से ६१ वें वर्ष पहले मैंने एक पुरुष का वध किया था। उसी कर्म के फलस्वरूप मेरे पैर विध गए हैं। मैं जो जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता हूँ उसी का भागी होता हूँ। समग्र प्राणी कर्म के पीछे चलते हैं जैसे रथ पर चढ़े हुए रथ के पीछे चलते हैं। बौद्ध दर्शन में कर्म को वासना रूप में माना है। आत्मा को क्षणिक मानने पर कर्म सिद्धान्त में, कृतप्रणाश, अकृतकर्मभोग, भव-प्रमोक्ष, स्मृतिभंग आदि दोष आते हैं। इन दोषों के निवारण के लिए इन्होंने सुन्दर युक्ति दी है। डा० नलिनाक्ष दत्त लिखते हैं-"प्रत्येक पदार्थ में एक क्षण की स्थिति नष्ट होते ही दूसरे क्षण की स्थिति प्राप्त होती है । जैसे एक बीज नष्ट होने पर ही उससे वृक्ष या अंकुर की अवस्था बनती है। बीज से उत्पन्न अंकुर बीज नहीं है किन्तु वह सर्वथा उससे भिन्न भी नहीं है । क्योंकि बीज के गुण अंकुर में संक्रमित हो जाते हैं।" ठीक यही उदाहरण बौद्धों का कर्म सिद्धान्त के विषय में है। उनके विचारों में बीज की तरह प्रत्येक क्षण के कृत कर्मों की वासना दूसरे क्षण में संक्रमित हो जाती है । इसीलिए कृत प्रणाशादि दोष उत्पन्न नहीं होते । बौद्ध दर्शन का यह प्रसिद्ध श्लोक है यस्मिन्न वहि सन्ताने आहिताकर्म वासना । फलं तत्र व संधत्ते का पासे रक्तता यथा ॥ ..... ATTATIONS TRAI VERS S R १ स्याद्वाद मं० से उद्धृत पृ०१८६ २ स्याद्वाद मञ्जरी से उद्धृत, पृ० १८७ ३ वही, पृ० १६२ ४ वही, पृ०२४७ ५ कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, पृ०१३ में उद्धृत-"यं कम्म करिस्सामि कल्याणं वा पापकं तस्स दायादं भविस्सामि ।" ६ सुत्तनिपात वोसढ सुत्त ६१ ७ अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिशिका, श्लोक १८ ८ "उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास", पृ० १५२ ६ स्याद्वाद मञ्जरी से उद्धृत, पृ० २४७ R CAM Tar ShaanNKathAARAD
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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