________________
शिध्याएँ और प्रशिष्याएं
प्रवर्तिनी श्री सरूपांजी और उनका परिवार | १६१
घोर तपस्विनी परमविदुषी महासतीजी श्री कस्तूरी जी की शिष्याओं में फूलकुंवरजी प्रधान थे। कुरजी की शिष्या परम तेजस्वी महासतीजी श्री श्रृंगार कुंवरजी थीं।
श्री श्रृंगार कुंवरजी
श्री श्रृंगार कुंवरजी मेवाड़ में सणगारां जी के नाम से प्रसिद्ध थी ।
पोटलां के ओसवंशीय सियाल परिवार से प्रब्रजित हुई, महासती सिणगारां जी, साध्वी समाज में सिंहनी जैसी तेजस्वी थी । शास्त्रीय ज्ञान की तो मानों भंडार ही थी। श्री सणगारांजी का व्याख्यान, एक ओजस्वी व्याख्यान था । मेवाड़ का तत्कालीन जैन समाज, इनसे बड़ा प्रभावित था ।
Jy
पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज को स्वर्गवास के बाद मेवाड़ में जो भिन्नता आई और उससे जो विशृंखलता पैदा हुई, उसे मिटाने का इन्होंने बड़ा कड़ा प्रयत्न किया।
पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज आचार्य बनने को तैयार नहीं थे । प्रायः सभी प्रयत्न करके थक गये अन्त में सणगारांजी ने महाराज को मनाने का बीड़ा उठाया ।
उन्होंने पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज को एक वाक्य कहा--"पूत कपूत होते हैं तब बाप की पगड़ी खूंटी पर टॅगी रहती है" बस यह एक वाक्य ही बहुत था । पूज्य श्री ने अपना आग्रह छोड़ दिया ।
महासती सणगारां जी समयज्ञ और प्रभावशाली महासती थी इनके अनेक शिष्याएँ हुईं। कुछ का परिचय
निम्नानुसार है
दाखांजी (सहाड़ा के ), झमकूजी (पोटलां के ), सोहन कुंवरजी (नाई के), मदन कुँवरजी । हरकूजी (भीम के ) राधाजी, राजकुंवरजी (ओढण के) पान कुंवरजी (नाथद्वारा के वरदूजी बलावरजी, किशन कुंवरजी (नाई के मगनाजी ( राज करेड़ा के ) आदि । सभी महासतीजी अच्छे क्रिया पात्र तथा शान्त स्वभावी थे किन्तु खेद का विषय है कि इतने बड़े शिष्या परिवार में से आज कोई उपलब्ध नहीं है और न इस परम्परा में कोई साध्वी जी ही हैं ।
जड़ावांजी वरदूजी का परिवार
एक महासतीजी थे जहा कुंवरजी ये इन्हीं सिघाड़ों में से किसी एक कुल के होंगे, इनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं है । उनकी शिष्या "वरदू जी” थे ।
महासती वरदूजी
महासती वरदूजी उदयपुर के थे। पारिवारिक परिचय ज्ञात नहीं । कब संयम लिया, कितने वर्ष संयम पाला तथा स्वर्गवास का समय क्या था इस विषय में कोई जानकारी नहीं मिली। जो जानकारी मिली उसके अनुसार ज्ञात हुआ कि बरजी महाराज सरल स्वभावी संयमप्रिय, तपस्वीनी महासतीजी थी। इन्होंने अपने जीवन काल में ग्यारह अठाइयाँ कीं, काली राणी का तप किया, एक लड़ी पूरी की । बेले बेले पारणे किये । पारणें में आयंबिल करते थे । स्वर्गवास सरदारगढ़ में हुआ । स्वर्गवास से पूर्व, सजा-सजाया हाथी देखा और उसी क्षण उनका स्वर्गवास
हो गया ।
स्वर्गोत्सव के लिये मुख वस्त्रिका उदयपुर से "रजत" की बनकर आई वह और सरदारगढ़ ठाकुर साहब ने जो चद्दर ओढ़ाई ये दोनों वस्तुएँ आग में नहीं जलीं । ज्यों की त्यों पाई गईं ऐसा कहा जाता है ।
श्री वरजी महाराज के कई शिष्याएँ थी केर कुंवरजी, नगीनाजी, गेंद कुंवरजी, हगामाजी आदि ।
1
परम विदुषी महासतीजी श्री के' र कुँवरजी
विदुषी महासतीजी श्री केशर कुंवरजी, जो मेवाड़ भर में केर कुंवरजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध है। श्री वरदूजी महाराज की बड़ी शिष्या है। रेलमगरा के खानदानी मेहता परिवार में संवत् १६४० में जन्म पाये । पिता का
म
F/27011
HIRI
000000000000
400000000X
2
000000000000
S.BR