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प्रवर्तिनी श्री सरूपांजी और उनका परिवार
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मेवाड़ से यतिवाद के प्रचण्ड प्रभाव को उखाड़ कर फेंकने और शुद्ध अध्यात्मवादी साधुमार्ग का घर-घर प्रचार करने के कार्य में जहाँ घोर तपस्वी, उत्कृष्ट आचारवान, धैर्यशील उग्र विहारी मुनिराजों का प्रमुख हाथ रहा वहाँ, इस प्रदेश में विचरण करने वाली महासतियों का भी कम सहयोग नहीं था ।
मुनिराजों ही नहीं महासतियों ने भी उग्र तपश्चरण करके और अध्यात्मवादी शुद्ध जीवन का परिचय देकर जनमानस को जड़वाद से बाहर खींचा ।
मेवाड़ में आज जो स्थानकवासी समाज लहलहा रहा है। इसका श्रेय इधर की शानदार महासती परम्परा
को भी है ।
मेवाड़ की साध्वी परम्परा में मुख्यतया दो धाराएँ बहुत दूर से है ।
एक धारा की प्रतिनिधि महासती श्री नगीना जी और उनकी परम्परा का परिचय जो मिल पाया अन्यत्र दिया जा चुका है। इस निबन्ध में हम दूसरी धारा, जिसकी अग्रगण्या महासतीजी श्री सरूपांजी हैं उसका परिचय दे रहे हैं।
प्रवर्तनी श्री सरूपांजी महाराज
पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया उसके बाद साध्वी समाज ने मिलकर श्री सरूपा जी को सुयोग्य समझकर प्रवर्तिनी का पद समर्पित किया। श्री सरूपां जी, निश्चय ही उस समय के साध्वी मण्डल में श्रेष्ठ होंगी तभी यह साध्वी समाज का श्रेष्ठ पद उन्हें दिया गया ।
खेद की बात
वस्तुतः यह बड़े खेद की बात है कि परम विदुषी, अग्रगण्या तथा प्रवर्तिनी पद विभूषिता उस साध्वी रत्न का हम इससे अधिक कुछ भी परिचय देने में समर्थ नहीं हैं । हमने बहुत कुछ जानने का प्रयास किया । उस परम्परा की महासतियों से और अन्य वृद्धों से भी उनका परिचय पाना चाहा किन्तु इससे अधिक कुछ भी परिचय नहीं मिल सका । शिष्याएँ
श्री सरूपां जी महाराज के कई शिष्याएं थीं। उनमें चम्पाजी, सलेकुँवरजी, लेरकुंवरजी, हगामाजी और सरेकुंवरजी मुख्य थीं । सरेकुंवरजी आकोला के थे ।
कस्तूरांजी और उनका सिंघाड़ा
श्री कस्तूरांजी की केवल इससे अधिक कोई जानकारी नहीं कि वे एक तपस्विनी थीं। उन्होंने रायपुर में इकवीस दिन, घासा में छब्बीस दिन, देलवाड़ा में तेरह दिन आकोला में उन्नीस की तपश्चर्या की थी। देवगढ़ में बेले बेले पारणे किये । परदेशी तप किया और मोलेला में इगतालीस दिन का दीर्घ तप किया । सरदारगढ़ में इगतीस दिन का तप
किया । इनका जन्मस्थान " मोलेला" था तथा ससुराल नाथद्वारा में था ।
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