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________________ १८२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० WALNADA HIN आ जुड़ते थे। गहरी से गहरी धार्मिक तत्त्व की बात भी, बड़े ही मीठे मेवाड़ी तरीके से ये श्रोताओं के दिलो-दिमाग में उतार सकते थे। स्वामीजी ने अपने आत्म-बल और व्याख्यानों के सहारे कई बड़े उपकार सम्पन्न किये। पचासों गांवों में एकादशी पूर्णिमा के पूर्ण अगते आज भी पलते हैं, जो स्वामीजी की याद को ताजा करते रहते हैं। जैन, हरिजन और गाडरी स्वामीजी ने अनेकों अजैन बन्धुओं को जैन धर्म से अनुप्राणित किया । मोखणदा का एक-एक भंगी तथा गाडरी प्रतिदिन सामायक की आराधना कर अन्न-जल ग्रहण करते थे। एकाजी देलवाड़ा दर्शनार्थ आये तब हमने देखा कि व्याख्यान में एक हरिजन बन्धु सामायिक करके बैठा है । पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि वह श्री भारमलजी महाराज साहब द्वारा प्रतिबोधित उपासक है। इस तरह एक गाडरी भी बराबर धर्माराधना करता रहता है। श्री भारमलजी महाराज बड़े लोकप्रिय सन्त थे । उनके प्रशंसकों की संख्या बहुत बड़ी थी। अधिकतर अपने निकटस्थ भक्तों में वे "भारू बा" के नाम से प्रसिद्ध थे। पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज साहब ने एक बार बताया कि हम किसी गाँव में गये तो एक किसान के बालक ने अपने घर की तरफ दौड़कर आवाज दी-"बाई ! (माँ) भारू बा आया ।" यह देखकर मैंने भारमलजी को कहा-"देखो, हमसे भी तुमको जानने वाले ज्यादा हैं।" उन्होंने अत्यन्त विनम्र होकर कहा-"यह सब आपकी कृपा का प्रतिफल है।" यह उनकी लोकप्रियता, उदारता एवं विनम्रता का अनुकरणीय उद्धरण है। वास्तव में वे एक सरल सन्त थे। सच्चे गुरु भक्त . स्वामीजी में एक सबसे बड़ी विशेषता गुरु-भक्ति की रही । जबसे उन्होंने पूज्य श्री के पास संयम लिया तबसे अन्तिम समय तक उन्होंने बराबर गुरु की आज्ञा का पालन किया । पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज मेवाड़ की मुनि परम्परा के उज्ज्वल रत्न थे। उनका प्रभाव भी गजब का था, किन्तु यह सत्य सिद्धान्त है कि चमकीले चन्द्र-सूर्य को ग्रहण लगा ही करते हैं। ऐसे ही पूज्यश्री के आसपास भी विरोधों के कई बवण्डर खड़े हुए, आरोपों की आँधियां चलीं। किन्तु पूज्यश्री अपनों के द्वारा ही चलाये गये उस विरोध में भी अविचल रहे और दृढ़ता के साथ अपने ध्येय पर बढ़ते रहे । उनकी हिम्मत असीम थी। उस कठिनाई के समय सबसे बड़ा साथ श्री भारमलजी महाराज साहब ने दिया । वे हर समय उनके साथ बने रहे । पूज्यश्री के साथ उन्होंने भारत के अधिकांश प्रान्तों में विचरण किया। कई जगह अनेकों परिषह दोनों ने एक जुट होकर सहे । लक्ष्मण जिस प्रकार राम की सेवा निभाते रहे। ऐसा ही उदाहरण श्री भारमलजी महाराज साहब ने पूज्य श्री के साथ प्रस्तुत किया। सेवा-मूर्ति रुग्ण मुनियों की परिचर्या के विषय में स्वामीजी सचमुच बेजोड़ थे। रूग्ण मुनि चाहे किसी भी घृणित दुर्गन्धित स्थिति में क्यों न हों, ये उन्हें सभी तरह से सम्भाल लेते । यों जीवन के साधारण व्यवहार में वे अशुचि से दूर रहते । गन्दा रहना उनकी प्रवृत्ति में नहीं था किन्तु किसी रुग्ण की परिचर्या के सन्दर्भ में अशुचि उन्हें रोक नहीं सकती। वे अशुचि ग्रस्त रूपण की अधिक तल्लीनता से सेवा करते थे। सेवा का ऐसा सुन्दर आदर्श अन्यत्र मिलना वास्तव में कठिन होता है। पूज्य श्री भारमलजी महाराज साहब ने कुल अड़तालीस वर्ष संयमी जीवन व्यतीत किया। संवत् दो हजार अठारह में श्रावण कृष्णा अमावस्या को स्वामीजी का राजकरेड़ा में स्वर्गवास हुआ। भारू बा चले गये । जनता गम में डब गई। श्री भारमलजी महाराज साहब सचमुच जनता के सन्त थे। "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” उनका जीवन था। आज उन्हें व्यतीत हुए चौदह वर्ष हुए। किसी भी साधारण व्यक्तित्व को विस्मृति में छुपाने को चौदह वर्ष काफी होते हैं किन्तु आज भी मेवाड़ का जनमानस यदि उन्हें स्मृति पथ पर लाता है, तो स्वीकार करना पड़ता है कि वे जनमानस में गहराई तक प्रविष्ट थे। 00 .. YOOON . PAN COwas COORD AON GRO Fer Private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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