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सरल-हृदय श्री भारमलजी महाराज
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आचार्य श्रीमानजी स्वामी विरचित एक दोहा है
"गुरु कारीगर सारखा, टांकी वचन समेत ।
पत्थर की प्रतिमा करे, पूजा लहे सहेत ।। पत्थर भी किसी अच्छे कारीगर के हाथों में पहुंच कर प्रतिमा बन जाया करता है । ठीक यही बात चरितार्थ । हुई, सरल आत्मा श्रद्धेय गुरुदेव श्री भारमलजी महाराज साहब के विषय में ।
सिन्दु, मावली जंक्शन के निकट एक छोटा-सा कस्बा है, यही स्वामीजी का जन्म-स्थान है। संवत् उन्नीस सौ पचासवें वर्ष में श्री भैरूलालजी बड़ाला की सुपनि श्रीमती हीराबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। वही छोटा सा अनजाना व्यक्तित्व, कुल बीस वर्ष बाद श्री भारमलजी महाराज साहब के नाम से अभिव्यक्त हुआ।
श्री भारमलजी महाराज का बचपन यद्यपि बहुत बड़ी सम्पन्नता में व्यतीत नहीं हुआ किन्तु श्रमनिष्ठा होने के कारण अभावग्रस्तता उन्हें दीन और अकर्मण्य नहीं बना सकी।
श्री भारमलजी महाराज, को असमय में माता-पिता का वियोग सहना पड़ा किन्तु हिम्मती होने के कारण अपने पथ पर अविचल बढ़ते रहे । अपनी सरल प्रकृति के कारण श्री भारमलजी बचपन से ही बड़े लोकप्रिय हो गये। उनका हृदय बचपन से ही अत्यन्त उदार था। वैराग्य
एक युग था जब घोड़े और ऊँट ही यातायात के प्रमुख साधन थे। श्री भारमलजी एक ऊंट पर दरोली आये। ऊँट पर ही उनका आना-जाना चलता था । दरोली के एक वृद्ध भाई ने कहा कि ऊँट ही उनके वैराग्य का कारण बना । ऊँट को खिलाने के लिये नीम और अन्य वृक्षों की डालियाँ जुटानी पड़तीं। बड़ा आरम्भ जन्य कार्य था। बड़ी झंझट थी यह, यों तो कई दिनों से यह चलता ही था किन्तु उस दिन न मालूम क्यों, उन्हें बड़ी परेशानी हुई। उन्होंने कहा- "मैं इन सभी झंझटों को छोड़ दूंगा।" उस भाई ने कहा कि हम उस समय इस वाक्य की गहराई और दिशा को नहीं समझ पाये । हमने देखा, श्री भारमलजी ने उसी दिन ऊँट बेच दिया, बेचा भी बहुत सस्ते में । हमने पूछा, ऐसा क्यों कर रहे हैं ? उन्होंने कहा अब नया मार्ग लिया जाएगा। श्री भारमलजी सिन्दु आ गये और शीघ्र ही पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज की सेवा में पहुंच गये । आवश्यक ज्ञानाभ्यास करके संवत् उन्नीस सौ सित्तर वर्ष में पूज्य श्री के सान्निध्य में मुनि-धर्म स्वीकार कर लिया । यह दीक्षा-समारोह बड़ी चहल-पहल किन्तु सादे रूप में 'थामला' ग्राम में सम्पन्न हुआ । संयमी जीवन
श्री भारमलजी महाराज का संयमी जीवन सरल, उदार और मिलनसार रहा। ज्ञानान्तराय का क्षयोपशम कम था अतः प्रायः सभी की यह धारणा थी कि श्री भारमलजी महाराज में प्रवचन की योग्यता का विस्तार होना कठिन है किन्तु श्री भारमलजी महाराज अपनी धुन के इतने पक्के निकले कि सभी देखकर दंग रह गये। ज्ञानाम्यास की ऐसी रट लगाई कि कुछ ही वर्षों में वे पाट पर बैठकर व्याख्यान देने लगे।
स्वामीजी के व्याख्यान में बड़ी सरलता थी । ठेठ ग्रामीण व्यक्ति भी महाराज की बात को अच्छी तरह समझ सकता था। प्रायः मध्यान्हकालीन व्याख्यान स्वामीजी का होता था। हमने कई बार देखा कि किसान लोग अपने चलते हल और बहते रेहँट-चड़स को छोड़कर उनके व्याख्यानों में दौड़ आते । ठठ्ठ के ठठ्ठ किसान स्वामीजी के व्याख्यानों में
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