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मेवाड़ राज्य की रक्षा में जैनियों की भूमिका | १२३
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बच्चों को भी निकाल दिया गया, यद्यपि बीकानेर महाराजा ने उसे अपने यहाँ ससम्मान आकर बसने का निमन्त्रण दिया, बाद में महाराणा सरूपसिंह ने भी सही स्थिति ज्ञात होने पर पुनः मेवाड़ में आने का बुलावा भेजा, किन्तु उसके पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। सेठ जोरावरमल बापना
पटवा गोत्र के सेठ जोरावरमल बापना के पूर्वजों का मूल निवासस्थान जैसलमेर था । इनके पिता गुमानचन्द थे, जिनके पाँच पुत्र थे, जोरावरमल चतुर्थ पुत्र था। मेवाड़ राज्य के शासन-प्रबन्ध में जोरावरमल यद्यपि किसी पद पर नहीं रहा, यह शुद्ध रूप से व्यापारिक प्रवृत्ति का पुरुष था किन्तु कर्नल टाड की सलाह से महाराणा भीमसिंह ने इसे जब इन्दौर से वि०सं० १८७५ में उदयपुर बुलाया एवं यहाँ दुकान खोलने की स्वीकृति दी तो उसके पश्चात् इसके कार्यों से मेवाड़ की रक्षा में पूर्ण योग मिला। इसकी दुकान से राज्य का सारा खर्च जाता था तथा राज्य की आय इसके यहाँ आकर जमा होती थी।
दुकान खोलने के बाद इसने नये खेड़े बसाए, किसानों को आर्थिक सहायता प्रदान की एवं चोरों व लुटेरों को राज्य से दण्ड दिलाकर मेवाड़ में शांति व व्यवस्था कायम रखने में पूर्ण सहयोग दिया । जोरावरमल की इन सेवाओं से प्रसन्न होकर वि० सं० १८८३ की ज्येष्ठ सुदी १ को महाराणा ने इसको पालकी व छड़ी का सम्मान दिया, बदनोर परगने का पारसोली गाँव मेंट में दिया एवं 'सेठ' की उपाधि प्रदान की। यह धनाढ्य ही नहीं अपितु राजनीतिज्ञ भी था। तत्कालीन मेवाड़ में प्रधान से भी अधिक सम्मान सेठ जोरावरमल बापना का था। कोठारी केसरीसिंह
बुद्धि-चातुर्य एवं नीति-निपुणता में प्रवीण कोठारी केसरीसिंह सर्वप्रथम वि०सं० १६०२ में महाराणा सरूपसिंह के समय में 'रावली दुकान' कायम होने पर उसका हाकिम नियुक्त हुआ। इसकी कार्यदक्षता व चतुरता से प्रसन्न होकर वि०सं० १६०८ में महकमा 'दाण' का इसे हाकिम बनाया गया और महाराणाओं के इष्टदेव एकलिंगजी के मन्दिर का सारा प्रबन्ध भी इसे सुपुर्द किया गया । २ कुछ समय पश्चात् इसे महाराणा का व्यक्तिगत सलाहकार भी नियुक्त किया। वि०सं० १६१६ में इसे नेतावल गाँव जागीर में प्रदान किया, इसकी हवेली पर मेहमान होकर महाराणा ने इसका सम्मान बढ़ाया, मेहता गोकुलचन्द के स्थान पर इसे मेवाड़ का प्रधान बनाया, बोराव गाँव भेंट में दिया और पैरों में पहनने के सोने के तोड़े प्रदान किये ।।
महाराणा शम्भूसिंह (वि०सं० १६१८-३१) जब तक नाबालिग था, उस स्थिति में कायम रीजेन्सी कौन्सिल का यह भी एक सदस्य था। स्पष्ट वक्ता एवं स्वामीभक्त होने के कारण इस कौन्सिल के सदस्य रहते हुए इसमें किसी भी सरदार या सामन्त को किसी जागीर पर गलत अधिकार नहीं करने दिया। यह तत्कालीन पोलिटिकल एजेन्ट को सही सलाह देकर शासन सुधार में भी रुचि लेता था। वि०सं० १९२५ में अकाल पड़ने पर इसने पूरे राज्य में अनाज का व्यवस्थित प्रबन्ध किया। महाराणा ने विभिन्न विभागों की व्यवस्था व देखरेख का जिम्मा भी इसे सौंप रखा था। इसका दत्तक पुत्र कोठारी बलवन्तसिंह को भी महाराणा सज्जनसिंह ने वि०सं० १९३८ में देवस्थान का हाकिम नियुक्त किया। महाराणा फतहसिंह ने वि०सं० १९४५ में इसे महद्राजसभा का सदस्य बनाया और सोने का लंगर प्रदान किया।
मेवाड़ राज्य की रक्षा में उपयुक्त प्रमुख जैन विभूतियों के अतिरिक्त अनेक अन्य महापुरुषों ने भी अपने जीवन का उत्सर्ग किया है, यहाँ सब का उल्लेख करना सम्भव नहीं है, किन्तु उपरिलिखित वर्णन से ही स्पष्ट है कि जैनियों ने निस्पृह होकर किस तरह मातृभूमि व अपने राज्य की अनुपम ब अलौकिक सेवा कर जैन जाति को गौरवान्वित किया ।
१ ओझा-राजपूताने का इतिहास, द्वितीय भाग (उदयपुर) पृ० १३३१-३३ । २ एकलिंगजी के मन्दिर का काम सम्हालने के बाद जैनधर्मानुयायी होते हुए भी केसरीसिंह व उसके उत्तराधिकारी
ने एकलिंगजी को अपना इष्ट देव मानना आरम्भ किया।
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