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११० पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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का अहिंसा की आदि भूमि होना प्रमाणित है । दूसरी संगति में मेवाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाले जैनाचार्यों को 'मज्झनिया शाखा' से संबोधित कर विशेष सम्मान प्रदान करना और महावीर के निर्वाण के केवल ८४ वर्ष बाद का शिलालेख मज्झनिका में पाया जाना भी मेवाड़ के आदि जैन केन्द्र होने के प्रमाण हैं ।
तीर्थंकरों के पद पद्म के पावन परस से उपकृत होकर मेवाड़ की भूमि ने अपनी कोख से ऐसी-ऐसी जैन विभूतियों को जन्म दिया जिनके कृतित्व-व्यक्तित्व ने समूचे भारत के जनजीवन को प्रेरित-प्रभावित किया और जैन धर्म की मूल प्राण शक्ति अहिंसा के प्रचार-प्रसार के साथ अपनी चमत्कारिणी धर्मपरायणता, दर्शन, साहित्य, कला, काव्य, व्यापार, वाणिज्य, वीरता, शौर्य, साहस व कर्मठता की ऐसी अद्भुत देन दी जिससे उनकी कीति प्रादेशिक सीमाओं के पार पहुँच कर भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों की गौरव गाथाएँ बन गयीं।
जैन जगत के मार्तण्ड सिद्धसेन ने विक्रमादित्य की राज सभा का नवरत्न पद त्याग कर मेवाड़ में जीवन . पर्यन्त के कृतित्व-व्यक्तित्व से जैन जगत द्वारा दिवाकर की पदवी प्राप्त की। आयड़ में भारत भर के जैन व्यापारियों ने इसे व्यापार का केन्द्र बना कर कई मन्दिरों के निर्माण से जैन धर्म को लोक धर्म बनाया । प्रद्युम्नसूरि ने आयड़ के राजा अल्लट से श्वेताम्बर संम्प्रदाय को राज्याश्रय प्रदान करवाया। अल्लट ने सारे राज्य में विशिष्ट दिनों में जीव हिंसा तथा रात्रि भोजन निषेध कर दिया। उसकी रानी हूण राजकुमारी हरियादेवी ने आयड़ में पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया । अल्लट के बाद राजा वीरसिंह के समय आयड़ में जैन धर्म के बड़े बड़े समारोह हुए और ५०० प्रमुख जैनाचार्यों की एक महत्त्वपूर्ण संगति आयोजित हुई । वैरिसिंह के काल में असंख्य लोगों को जैन धर्म में दीक्षित कर अहिंसा जीवन की शिक्षा दी तथा सहस्रों विदेशियों को जैन धर्म में दीक्षित कर उनका भारतीयकरण किया गया। आयड़ में महारावल जैत्रसिंह के अमात्य जगतसिंह ने ऐसी घोर तपस्या की कि जैत्रसिंह ने उन्हें तपाकी उपाधी दी और यहीं से 'तपागच्छ' निकला है । जिसके आज भी श्वेताम्बर मूर्ति पूजकों के सर्वाधिक अनुयायी हैं।
बसंतपुर में आराधना के लिए आये हेमचन्द्राचार्य और विद्यानन्द ने यहाँ सिद्धि प्राप्त की और अपने व्याकरण ग्रन्थ लिखे।
मज्झमिका, आयड़, बसंतपुर के साथ ही जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र चित्तौड़ था । यहाँ श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के भारत प्रसिद्ध आचार्य आये और इसी भूमि को जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का केन्द्र बनाकर कीर्ति अजित की। जैन साहित्य
सर्व दर्शन समुच्चय, शास्त्र वार्ता समुच्चय, समराईच्चकहां, धर्मबिन्दु, योग बिन्दु, अनेकांतवाद-प्रवेश, अनेकांतजयपताका, प्राकृत में प्रकरण ग्रन्थ एवं संस्कृत के अन्य ग्रन्थ व लेख-हरिभद्रसूरि की महान साहित्यिक देन तथा जैन धर्म के प्रमुख ग्रन्थ हैं । षडशीति सार्द्धशतक, स्वप्न सप्तति, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक, अष्ट सप्तति आदि जिनदत्त सूरि के प्रमुख ग्रन्थ हैं । प्रत्येक बुद्ध चरित्र, वाग्भटालंकार वृत्ति तथा तीर्थमाला जिनवर्द्धन सूरि के प्रमुख ग्रन्थ हैं । धर्म प्रचारक साहित्यानुरागी श्रावक
लल्लिग, जिसने हरिभद्रसूरि के कई ग्रन्थों का आलेखन कराया। आशाधर श्रावक बहुत बड़े विद्वान थे। लोल्लाक श्रावक ने बिजौलिया में उन्नत शिखर पुराण खुदवाया। धरणाशाह ने जिवाभिगम सूत्रावली, ओघनियुक्ति सटीक, सूर्य प्रज्ञप्ति, सटीक अंग विद्या, कल्प भाष्य, सर्व सिद्धान्त विषम पद पर्याय व छंदोनुशासन की टीका करवायी। चित्तौड़ निवासी श्रावक आशा ने 'कर्म स्तव विपाक' लिखा । डूंगरसिंह (श्रीकरण) ने आयड़ में “ओघनियुक्ति" पुस्तिका लिखी । उद्धरसुन हेमचन्द्र ने "दशवकालिक पाक्षिका सूत्र" व ओघनियुक्ति लिखी। वयजल ने आयड़ में पाक्षिक वृत्ति लिखी। जैन वीर
अलवर निवासी भारमल जैन कावड़िया को राणा सांगा ने रणथम्भौर का किलेदार व अपने पुत्र
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