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________________ मेवाड़ और जैनधर्म | १०६ ०००००००००००० 000000000000 ....... 2 सेडरगच्छ को अपना कुल गुरु ही नहीं माना किन्तु इसके बहुत काल पहले इस राजवंश के कई राजपुत्र जैन धर्म में प्रवजित हो धर्म प्रचार में निकल पड़े जिनमें छठी शताब्दी के समुद्रविजय बहुत ही प्रभावकारी साधु हुए। छठी शताब्दी से १३ शताब्दी तक का काल जैन धर्म का स्वर्णकाल माना जा सकता है। कुभा के समय जैन स्थापत्य कला चरम विकास पर पहुंच चुकी थी। राणकपुर का त्रिलोक्य दीपक के समान कला और गोठवण का मन्दिर भारत में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । चित्तौड़ तथा नागदा और एकलिंगजी आदि स्थानों में जितने भी भव्य और विशाल हिन्दू मंदिर दिखाई पड़ेंगे उनमें जैन मूर्ति अंकित मिलेगी। कुंभा के समय कुछ ऐसे मन्दिरों और स्थानों के निर्माण हुए हैं जिनके निर्माण कराने में बड़े-बड़े राज्य भी कर्नल टाड के अनुसार हिचकते थे। दशवीं शताब्दी का जैन कीर्ति स्तम्भ तो भारतवर्ष में अपने ढंग की एक ही कला कृति है । मेवाड़ में आज भी जितने जैन मन्दिर हैं उस परिमाण में सब धर्मों के मिलाकर भी नहीं मिलेंगे। कला और भव्यता में तो इनके सानी के बहुत ही कम मिलेंगे । कुंभा ने तो अपने जैन कुलगुरु के अतिरिक्त एक और जैन साधु को अपना गुरु बनाया। भारत के अन्तिम सम्राट सांगा का धर्मगुरु रत्नसूरि की अगवानी के लिए अपने पूरे लवाजमें के साथ कई कोसों दूर जाना इतिहास प्रसिद्ध घटना है । क्षात्र धर्म की प्रतिमूर्ति महाराणा फतहसिंह का ऋषमदेव को हीरों की, लाखों रुपयों की आंगी चढ़ाना ऐतिहासिक तथ्य है। बिजौलिया का चढ़ान का उन्नत शिखर प्रमाण भी भारत में एक ही है । मेवाड़ मानव सभ्यता के आदिकाल से ही शौर्य प्रधान रहा है जिसे जैनधर्म ने अहिंसा की गरिमा से अनुप्राणित कर अपनी मूल मान्यता कम्मेसूरा सो धम्मेसूरा के अनुकूल बना लिया । यही कारण है कि मेवाड़ में जैन धर्म के उत्कर्ष का जो वसंत खिला, वैसा अन्यत्र मुश्किल से मिलेगा। यहां जैन के सब ही संप्रदायों ने पुर जोर से अहिंसा व धर्म-प्रचार में हाथ बँटाया। तपागच्छ और तेरापंथ सम्प्रदाय का तो उद्गम स्थान ही मेवाड़ रहा । स्थानकवासी समाज का आरम्भ से ही प्रभाव पाया जाता है। श्वेताम्बर समाज में आज भी सबसे अधिक संख्या उन्हीं की है। उनकी मेवाड़ शाखा अलग ही एक शाखा रूप में कार्य कर रही है। पूज्य श्री रोड़ जी स्वामी (तपस्वीराज) पूज्य श्री मान जी स्वामी, पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज इसी शाखा के ज्योतिर्मय संत रत्न थे । मेवाड़ में स्थानकवासी सम्प्रदाय को पल्लवित पुष्पित करने का सर्वाधिक श्रेय इस .. शाखा को ही है। जैन मुनि आचार्य श्री जवाहरलाज जी व उनके शिष्य पं० रत्न श्री घासीलाल जी द्वारा यहाँ काफी साहित्य का निर्माण हुआ और अहिंसा धर्म का पालन रहा। जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमल जी महाराज ने हजारों व्यक्तियों को मांस मदिरा का त्याग करा उनके जीवन को उन्नत किया । भामाशाह और ताराचंद लोंकामत के अनुयायी होने से उन्होंने हजारों व्यक्तियों को अहिंसा में प्रवृत्त किया। दिगम्बर सम्प्रदाय का आठवीं शताब्दी से १३वीं तक बड़ा प्राबल्य रहा । एलाचार्य आदि बड़े-बड़े मुनियों के यहाँ चित्तौड़ आ अहिंसा व साहित्य साधना के उल्लेख पाये जाते हैं। इसके बाद इनका प्रभाव क्षेत्र बागड़ बन गया। और बागड़ को पूरा अहिंसक क्षेत्र बना डाला। जब शैव और जैन, बौद्ध धर्म के बीच इतना विषम वैमनस्य व्याप्त हो गया कि दक्षिण में शैव बौद्धों के साथ जैनियों की भी हत्या कर रहे थे वहाँ मेवाड़ में शैव और जैन धर्म में इतना आश्चर्यजनक सौमनस्य था कि राजा शैव थे तो उनके हाथ जैनी थे अर्थात् शासन प्रबन्ध के सभी पदों का संचालन जैनियों द्वारा होता था। यही नहीं राजा की आत्मा शैव थी तो देह जैन थी। मेवाड़ में जैन धर्म का इतना वर्चस्व बढ़ा कि राजद्रोही, चोर, डाकू और बंदीगृह से भागे कैदी भी यदि जैन उपाश्रय में शरण ले लेते तो उन्हें बंदी नहीं कर सकने की राजाज्ञा थी। वध के लिये ले जाया जा रहा पशु यदि जैन उपाश्रय के सामने आ जाता तो उसे अभयदान दे दिया जाता था। मेवाड़ की भूमि ऐसी सौभाग्यशालिनी भूमि रही है जहाँ जैन धर्म के तीन-तीन तीर्थकरों, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के पद पद्मों से इस भूमि के पावन होने की सम्भावना शोध से फलवती हो सकती है। आवश्यक चूणिका के अनुसार महावीर के पट्टधर गौतम स्वामी का अपनी शिष्य मंडली सहित मेवाड़ में आने का उल्लेख है । जैन धर्म की दूसरी संगति के अध्यक्ष स्कण्डिलाचार्य के पट्टधर सिद्धसेन दिवाकर ने तो अवन्तिका का त्याग कर मेवाड़ को ही अहिंसा धर्म प्रसार की कर्मभूमि बनाया । दूसरी शताब्दी पूर्व के 'भूतानाम् दयार्थ' के जैन शिलालेख से इस मेवाड़ भूमि Wiuliat ION ::: . 2 /
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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