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सम्पादकीय
अभिनन्दन, स्वरूप और विश्लेषण
प्रत्येक स्थूल का मौलिक सत्य कुछ सूक्ष्म हुआ करता है। सूक्ष्म तो फिर सूक्ष्म ही है, उसे तत्काल पा लेना संभव ही नहीं; और यह असंभवता ही स्थूल की जननी है ।
सूक्ष्म को ढूँढ़ना होता है, फिर वह चाहे वस्तुपरक हो या भाव-परक ।
सूक्ष्म तक पहुँचने की प्रक्रिया ने विज्ञान को जन्म दिया, जो आज जन-जीवन के भौतिक पक्ष का एक आवश्यक अंग बन चुका है।
मानव अन्तर्भेदी दृष्टि रखने वाला एक विलक्षण प्राणी है। अनन्त काल से वह स्थूल के आधारभूत सूक्ष्म को ढूँढ़ता खोजता चला आ रहा है ।
हमारे शास्त्र इस बात के साक्षी हैं कि मानव की शोध प्रधान दृष्टि ने अनेक परोक्ष तथ्यों को उद्घाटित ही नहीं किया, अपितु उनके अन्तःस्थल में पहुँचकर उन्हें ठीक-ठीक पहचाना भी ।
श्री गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से हजारों प्रश्न पूछे, वे उनकी स्थूल से सूक्ष्म तक पहुँचने की चिरन्तन मानवीय आकांक्षा के परिचायक हैं।
पाठकों के हाथों में एक अभिनन्दन ग्रन्थ है । यों अभिनन्दन ग्रन्थ कुछ सौ पृष्ठों का संगठन मात्र है । किन्तु फलित स्थूल मात्र के आधारभूत किसी सूक्ष्म की तरह इसकी तह में भी कुछ सूक्ष्म छुपा हुआ है ।
जहाँ तक पदार्थात्मक सूक्ष्मत्व का प्रश्न है, अन्य पदार्थों की तरह इसमें भी कोई विशेषता नहीं मिलती, किन्तु इसके साथ जो भावात्मक चेतना जुड़ी हुई है वह अवश्य इन्द्रियगम्य नहीं होकर संवेदनात्मक मानस प्राप्य एक सूक्ष्म तत्त्व है ।
पाठक उस सूक्ष्म तक पहुंचें, मात्र यही अभिप्रेत है। अभिनन्दन के किसी भी समायोजन का मूल वह श्रद्धा होती है जो किसी श्रद्धेय के प्रति चुपचाप किसी मानस में स्थान बना लिया करती है ।
मानव-मन लोक जीवन के सामान्य संस्कारों में जैसा कि उसका निर्माण होता है, अधिकतर स्पर्धात्मक, विद्रोहात्मक तथा संशयात्मक होता है ।
अनायास ही मन किसी को स्वीकार करले, प्रायः मन की ऐसी तैयारी नहीं हुआ करती ।
सामान्य एवं असामान्य ऐसे कई कारण प्रायः उपस्थित ही रहते हैं कि मन कभी-कभी अपने अति नैकट्य में भी विद्रोहात्मक हो उठता है; ऐसी स्थिति में कोई किसी को स्वीकार करे उसे श्रद्धेय और वन्दनीय कहे, यह एक विलक्षण बात होगी ।
ऐसी विलक्षणताएँ कभी-कभी होती हैं ।
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