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मेवाड़ की लोक संस्कृति में धार्मिकता के स्वर | ६३
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जाती है कि वह उसे बड़े यत्नपूर्वक खुशहाल रखे । यह शीतला किसी एक जाति की नहीं होकर सम्पूर्ण गांव की चेचक रक्षिका है। इस दिन प्रत्येक गांव में शीतला को शीतलाया जाता है । इस दिन ठंडा खाया जाता है।
गणगौर को जहाँ सधवाएँ अपने सुहाग के लिए पूजती हैं वहाँ बालिकाएँ श्रेष्ठ पति की प्राप्ति हेतु प्रति-दिन प्रातः होली के बाद से ही इसे पूजना प्रारम्भ कर देती हैं । गणगौर के व्रत के दिन दीवाल पर महिलाएँ थापे का जो अंकन करती है उसमें माता गणगौर तक पहुंचने की जो सिढ़ियाँ होती हैं उनको पारकर धर्मात्मा महिला ही उन तक पहुँच सकती है, इसलिए गणगौर के माध्यम से नारियाँ अपने धर्ममय जीवन को सरल, सादगीपूर्ण एवं संयमित करती हुई सुफलदायिनी होती हैं।
श्रावण में छोटी तीज से लेकर बड़ी तीज तक मन्दिरों में झूलोत्सव की देव झांकियों को छवि देखने प्रतिरात्रि को विशाल जनसमूह उमड़ पड़ता है । इन झूलों की अद्भुत छटा तथा धार्मिक दृश्यावलियाँ, भजन-कीर्तन तथा धर्म संगीत प्रत्येक जन-मन को धर्म-कर्म की ओर प्रेरित करता है, इसी श्रावण में शुक्ल पंचमी को जहरीले जीवों से मुक्त होने के लिए साँप की विविधाकृतियां बनाकर नागपंचमी का व्रतानुष्ठान किया जाता हैं, हमारे यहाँ सर्प पूजा का पौराणिक दृष्टि से भी बड़ा धार्मिक महत्त्व है। यों सर्प ही सर्वाधिक जहरीला जानवर समझा गया है इसलिए दीवालों पर ऐपन के नागों की पूजा तथा चाँदी के नागों का दान बड़ा महत्त्वकारी माना गया है ।
रक्षाबन्धन का महत्त्व जहाँ माई-बहन का अगाढ़ स्नेह व्यक्त करता है वहाँ श्रवण के पाठों द्वारा उसकी मातृ-पितृभक्ति का आदर्श स्वीकारते हुये उसे आचरित करने की सीख प्राप्त की जाती है । श्रवण हमारी संस्कृति का एक आदर्शमान उदाहरण है श्रवण सम्बन्धी गीत-आख्यान निम्न से निम्न जातियों तक में बड़ी श्रद्धा-निष्ठा लिए प्रचलित हैं, नीमड़ी की पूजा का भी हमारे यहाँ स्वतन्त्र विधान है। बड़ी तीज को मिट्टी का कुड व तलाई बनाकर उसमें नीम-आक की डाल लगाई जाती है ये दोनो ही वृक्ष-पौध कडुवे हैं परन्तु अनेकानेक बीमारियों के लिए इनका उपयोग रामबाण है। नीमड़ी के व्रत के लिए सुहागिन का पति उसके पास होना आवश्यक है । इसे सोलह वर्ष बाद उझमाया जाता है।
भाद्रकृष्णा एकादशी, ओगड़ा ग्यारस को माताएं अपने पुत्र से साड़ी का पल्ला पकड़ाकर गोबर के बने कुण्ड से रुपये नारियल से पानी निकालने का रास्ता बनाकर ओगड़ पूजती हैं इसी प्रकार वत्स द्वादशी, वछबारस को माताएँ अपने पुत्रों के तिलककर उन्हें एक-एक रुपया तथा नारियल देती हैं । माँ-बेटे के पावन पवित्र रिश्तेनाते के प्रतीक ये व्रत हमारी धर्मजीवी परम्परा के कितने बड़े संबल और सबक प्रेरित हैं।
एकम से दशमी तक का समय विशेष धर्म-कर्म का रहता है । यह 'अगता' कहलाता है। इन दिनों औरतें खाँडने, पीसने, सीने, कातने तथा नहाने-धोने सम्बन्धी कोई कार्य नहीं कर दशामाता की भक्ति, पूजा-पाठ तथा व्रतकथाओं में ही व्यतीत करती हैं यह दशामाता गृहदशा की सूचक होती हैं, मेवाड़ में इसको व्यापकता देखते ही बनती है मैंने ऊँच से ऊंच और नीच से नीच घरों में दशामाता को पूजते-प्रतिष्ठाते-थापते देखा है । इन दिनों जो कहानियां कही जाती हैं वे सब धामिकता से ओतप्रोत असत् पर सत् की विजय लिये होती हैं । सभी कहानियों में आदर्श-जीवन, घर-परिवार, समाज-संसार की मूर्त भावनाओं की मंगल-कामनायें संजोई हुई मिलती हैं । वर्षभर महिलाएँ दशामाता की बेल अपने गलों में धारणकर अपने को अवदशा से मुक्त मानती है।
यहाँ का मानव अपने स्वयं के उद्धार-उत्थान के साथ-साथ अन्यों के कल्याण-मंगल का कामी रहा है, पशुपक्षी तथा पेड़-पौधादि समस्त चराचर को वह अपना मानता रहा है इसलिए इन सबकी पूजा का विधान भी उसने स्वीकारा है। दशामाता की पूजा में वह पीपल पूजकर उसकी छाल को सोने की तरह मूल्यवान मानकर उसे अपनी कनिष्ठिका से खरोंचता हुआ बड़े यत्नपूर्वक रत्नों-जवाहरातों की तरह घर में सम्हाले रहता है। दीयाड़ी नम को हामा, नामा, खेजड़ी, बोबड़ी, आम, बड़ आदि वृक्षों की डालियाँ पूजकर मांगलिक होता है, यों इन वृक्षों को बड़ा ही पावन पूज्य माना गया है। देव-देवियों का इन पर निवास मानने के कारण इनकी पूजा कर वह अपने को नाना दर्द-दुखों से हल्का कर हर्षमग्न होता है।
श्रावण कृष्णा द्वितीया को बालिकाएँ घल्या घाल कर व्रत करती हैं, हरियाली अमावस्या के बाद आने वाले रविवार को भाई की फूली बहिनों द्वारा बाँधी जाती है। इस दिन व्रत किया जाता है और फूली की कथा कही जाती है।
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