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जस कीर्तिकृत सम्मेतशिखर-रासका सार [आगराके कुवरपाल सोनपाल लोढाके संघका वर्णन]
- श्री अगरचंद नाहटा
-श्री भंवरलाल नाहटा ऐतिहासिक सामग्री में तीर्थमालाओं का भी विशेष स्थान है, पर अब तक उनका एक ही संग्रह प्रकाशित हुआ है। इसीलिए हमारे तीर्थों का इतिहास समुचित प्रकाश में नहीं पाया है। समय-समय पर निकलने वाले यात्रार्थी संघों के वर्णनात्मक रासों से तत्कालीन इतिवृत्त पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस लेख में ऐसे ही एक यात्रार्थी संघ के रास का ऐतिहासिक सार दिया जा रहा है। यह संघ सं. १६७० में आगरा के सुप्रसिद्ध संघपति कुवरपाल-सोनपाल लोढा ने तीर्थाधिराज सम्मेत शिखर गिरि के यात्रार्थ निकाला था जिसका वर्णन रास में काफी विस्तार से है । मूल रास ४८३ गाथाओं का है, यहां उसका संक्षेप में सारमात्र देते हैं।
सर्व प्रथम कवि तीर्थंकरों को नमस्कार कर अंचलगच्छाधिपति श्री धर्ममूर्तिसूरि एवं विजयशील वाचक को वंदन कर सम्मेतशिखर-रास का प्रारम्भ करता है। सम्राट जहांगीर के शासन में अर्गलपुर में (आगरा में) प्रोसवाल अंगाणी लोढा राजपाल पत्नी राजश्री-पुत्र रेखराज पत्नी रेखश्री-पुत्र कुवरपाल सोनपाल निवास करते थे। एक दिन दोनों भ्राताओं ने विचार किया कि शत्रुजय की यात्रा की जिनभुवन की प्रतिष्ठा कराके पद्मप्रभु की स्थापना की। सोनपाल ने कहा-भाईजी, अब सम्मेतशिखरजी की यात्रा की जाय ! कुवरपाल ने कहा- "सुन्दर विचारा, अभी बिम्बप्रतिष्ठा में भी देरी है।" यह विचार कर दोनों भाई पोसाल गए और यात्रा-मूहत के निमित्त ज्योतिषियों को बुलाया। गणक और मुनि ने मिलकर सं. १६६९ माघ कृष्णा ५ शुक्रवार उत्तरा फाल्गुनी कन्या लग्न में मध्य रात्रि का मुहत बतलाया। गच्छपति श्री धर्ममूर्तिसूरि को बुलाने के लिए विनतिपत्र देकर संघराज को (कुवरपाल के पुत्र को) राजनगर भेजा। गच्छपति ने कहा, "तुम्हारे साथ शत्रुजय संघ में चले तब मेरी शक्ति थी, अभी बुढ़ापा है, दूर का मार्ग है, विहार नहीं हो सकता।" यह सुन संघराज घर लौटे। राजनगर के संघ को बुलाकर ग्राम-ग्राम में प्रभावना करते हुए सीकरी पाए। गुजरात में दुष्काल को दूर करने वाले संघराज को आया देख स्थानीय संघ ने उत्सव करके बधाए। शाही फरमान प्राप्त करने के लिए भेंट लेकर सम्राट जहांगीर के पास गए, वहां दिवाने दोस मुहम्मद नवाब ग्यासवेग और अनीयराय ने इनकी प्रशंसा करते हुए सिफारिश की। सम्राट ने कहा-"मैं इन उदारचेता प्रोसवाल को अच्छी तरह जानता हैं, इनसे हमारे नगर की शोभा है, ये हमारे कोठीपाल हैं और बन्दी छोड़ावण इनका बिरुद है। मैं इन पर बहुत खुश हूँ, जो मांगे सो दूगा।" सेनानी के अर्ज करने पर सम्राट ने संघपति के कार्य की महती प्रशंसा करते हुए हाथोहाथ फरमान के साथ सिरोपाव निसाणादि देकर विदा किए। नाना वाजिंत्रों के बजते हुए शाही पुरुषों के साथ समारोह से घर आकर निम्नोक्त स्थानों के संघ को आमंत्रण भेजे गए
अहमदाबाद, पाटण, खंभात, सूरत, गंधार, भरौंच, हांसोट, हलवद्र, मोरबी, थिरपद्र, राधनपुर, साचौर, भीनमाल, जालौर, जोधपुर, समियाना, मेड़ता, नागौर, फलौधी, जेसलमेर, मुलतान, हंसाउर, लाहौर, पाणीपंथ,
प्रहमान -
શીઆર્ય કcઘાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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