________________
थे। श्रीमहेंद्रप्रभमरिने इन्हें प्राचार्यपदके सर्वथा योग्य जानकर सं. १४२६ में पाटणमें सरिपदसे अलंकृत किया। संघपति नलपालने नंदिमहोत्सव, दानादि किये। तदनंतर मेरुतुगसरि, देशविदेशमें विचरकर उपदेशों द्वारा भव्यजीवों को एवं नरेंद्रादिको प्रतिबोध देने लगे। प्रासाउली में यवनराज को प्रतिबोधित किया। सं. १४४४ का चातर्मास लोलाइडमें किया, वहाँ राठौरवंशी फरणगर मेघराजा को १०० मनुष्योंके साथ धर्म में प्रतिबोधित किया।
एक बार सूरिजी संध्यावश्यक कर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित खड़े थे कि एक काले सांपने प्राकर पैर में डस दिया। सरि महाराज, मेतार्य, दमदन्त, चिलातीपुत्र की तरह ध्यान में स्थिर रहे । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर, मंत्र, तंत्र, गारुड़िक सब प्रयोगों को छोड़ कर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा के समक्ष ध्यानासन जमाकर बैठ गये। ध्यान के प्रभाव से सारा विष उतर गया। प्रातःकालीन व्याख्यान देने के लिए आये, संघ में अपार हर्षध्वनि फैल गई। तदनंतर मेरुतुगसूरि अपाहिलपुर पाटण पधारे । गच्छनायक पदके लिए सुमुहर्त देखा गया, महिनों पहले उत्सव प्रारंभ हो गया। तोरण, बंदरवाल मंडित विशाल मंडप तैयार हुअा, नाना प्रकार के नत्य वाजित्रों की ध्वनि से नगर गुंजायमान हो गया। पोसवाल रामदेव के भ्राता खीमागर ने उत्सव किया। सं. १४४५ फाल्गुन वदी ११ के दिन श्री महेंद्रप्रभसरिजी ने गच्छनायक पद देकर सारी गच्छधुरा श्री मेरुतुगसरि को समर्पित की। संग्रामसिंह ने पदठवणा करके वैभव सफल किया। श्री रत्नशेखरसूरिको उपाचार्य स्थापित किया गया। संघपति नलपाल के सानिध्य में समस्त महोत्सव निर्विघ्न संपन्न हये।
सरि महाराज निर्मल तपसंयमका अाराधन करते हवे योगाभ्यास में विशेष अभ्यस्त रहने लगे । हठयोग, प्राणायाम, राजयोग आदि क्रियाओं द्वारा नियमित ध्यान करते थे । ग्रीष्म ऋतु में धूप में और शीतलकाल की कड़ाके की सर्दी में प्रतिदिन कायोत्सर्ग करके पात्मा को अतिशय निर्मल करने में संलग्न थे। एक बार आप प्राबूगिरि के जिनालयों के दर्शन करके उतरते थे, संध्या हो गई। मार्ग भूलकर विषमस्थान में पगदण्डी न मिलने पर बिजली की तरह चमकते हुए देवने प्रकट होकर मार्ग दिखलाया। एक बार पाटण के पास सथवाडे सहित गुरु श्री विचरते थे, यवन सेना ने कष्ट देकर सब साथको अपने कब्जे में कर लिया। सरिजी यवनराज के पास पहुंचे। उनकी प्राकृतिललाट, देखकर उसका हृदय पलट गया और तत्काल सब को मुक्त कर लौटा दिया। एक बार गुजरात में मुगलों का भय उत्पन्न होने पर सारा नगर सूना हो गया, पर सूरिश्री खंभात में स्थित रहे। कुछ ही दिनों में भय दूर हुआ और सब लोग लौट आये । सूरिजी बाड़मेर विराजते थे, लघु पोशाल के द्वार पर सात हाथ लंबा सांप पाकर फुकार करने लगा, जिससे साध्वियाँ डरने लगीं। उन्होंने सूरिजी को सूचना दी, सांप तत्काल स्तंभित हो गया। एक बार सूरिजी ने सं. १४६४ में सांचौर चौमासा किया । अश्वपति (बादशाह) विस्तृत सेना सहित चढ़ाई करने के लिए पा रहा था। सब लोग दशों दिशि भागने लगे । ठाकुर भी भयभीत था, सरिजी के ध्यान बल से यवनसेना सांचौर त्याग कर अन्यत्र चली गई। इस प्रकार सूरिजी के अनेकों अवदात हैं।
- सूरिजीने साहित्य निर्माण भी खूब किया, इस रास में निम्नोक्त ग्रंथरचना का उल्लेख है:(१) व्याकरण (२) षटदर्शननिर्णय (३) शतपदीसार (४) रायनाभाक चरित्र (५) कामदेव कथा (६) धातूपारायण (७) लक्षणशास्त्र (७) मेघदूत महाकाव्य (९) राजमतिने मिसंबंध (१०) सूरिमंत्रोद्धार (११) अंगविद्याद्धार (१२) सत्तरी भाष्यवृत्ति इत्यादि ।
सूरिजीने सत्यपुर नरेश राड़ पाता, नरेश्वर मदनपाल को प्रतिबोध दिया । उड़र मलिक भ (?) के पुत्र
કહS શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌણસ્મૃતિગ્રંથ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org