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mooooooooo [२५] ६. पट्टावलीमें महेंद्रप्रभसूरिका सं. १४४४ में स्वर्गस्थ होना लिखा है, रासमें सं. १४४५ फा. व. ११ के दिन (मेरुतुगसूरि का) महेंद्रप्रभसूरि के द्वारा गच्छनायकपद स्थापित करने का उल्लेख है ।
७. सूरिजी का स्वर्गवास पट्टावली में जूनागढ़में सं. १४७३ में हुआ लिखा है, जबकि रासके अनुसार सं. १४७१ मार्गशीर्ष पूर्णिमा सोमवारको ही पाटण में हो चुका था।
रास में बहुत सी ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं जो पट्टावलीमें नहीं पायी जाती हैं। अतः एव यह रास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और अंचलगच्छके इतिहासमें संशोधनकी सुन्दर सामग्री प्रस्तुत करने के साथ-साथ नृपप्रतिबोधादि अनेक नवीन सामग्री प्रकाशमें लाता है।
रासमें सूरिजी की जिन कृतियों का उल्लेख है उनमेंसे धातुपारायण तथा अंगविद्याउद्धार अद्यावधि अप्राप्त जनका अंचलगच्छके ज्ञानभंडारोंमें अन्वेषण होना चाहिए। संभव है कि और भी कतिपय नथ उपलब्ध हों क्योंकि रासमें उल्लिखित ग्रन्थोंके अतिरिक्त (१) भावक्रम प्रक्रिया (२) शतक भाष्य (३) नमुत्थुण टीका (४) सुश्राद्धकथा (५) उपदेशमाला टीका (६) जेसाजी प्रबन्ध (ऐतिहासिक ग्रंथ) का उल्लेख भी प्राप्त है।
अब पाठकोंके अभिज्ञानार्थ उपर्युक्त रास का संक्षिप्त ऐतिहासिक सार दिया जाता है।
प्रथमगाथा में गणधर श्री गौतमस्वामी को नमस्कार करके चौथी गाथा तक प्रस्तावनामें उद्देश, चारित्रनायककी महानता, कविकी लघुता आदि वर्णन कर पांचवी गाथासे वीरप्रभुके पट्टधर सुधर्मस्वामी-जंबू-प्रभवादिकी परम्परामें, वज्रस्वामीकी शाखा के प्रभावक विधिपक्षप्रकाशक श्री आर्यरक्षितसूरि-जयसिंहसरि-धर्मघोषसरिमहेंद्रसूरि-सिंहप्रभ-अजितसिंह-देवेंद्रसिंह-धर्मप्रभ---सिंहतिलक-महेंद्रप्रभ तक अंचलगच्छके दस आचार्यों के नाम देकर ग्यारहवें गच्छनायक श्री मेरुतुगसरि का चरित्र ८वीं गाथासे प्रारम्भ किया है।
मरुमण्डल में नानी नामक नगरमें बुहरा वाचारगर और उसके भ्राता विजयसिंह हुए, जिन्होंने सिद्धान्तार्थ श्रवणकर विधिपक्ष को स्वीकार किया। विजयसिंहके पुत्र वइरसिंह बहुरा प्राग्वाटवंशके शृगार, विचक्षण; व्यवसायी, महान् दानी और धर्मिष्ठ हुए। उनकी नालदेवी नामक स्त्री शीलालंकारधारिणी थी। एक बार नालदेवीकी कुक्षि में पुण्यवान् जीव देवलोकसे च्यवकर अवतीर्ण हुआ, जिसके प्रभावसे स्वप्नमें उसने सहस्रकिरणधारी सूर्य को अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखा। चक्रेश्वरीदेवी ने तत्काल आकर इस महास्वप्न का फल बतलाया कि तुम्हारे मुक्तिमार्ग-प्रकाशक ज्ञानकिरणयुक्त सूर्य की तरह प्रतापी पुत्र उत्पन्न होगा, जो संयममार्ग ग्रहणकर युगप्रधान योगीश्वर होगा । चक्रेश्वरीके वचनों को आदर देती हुई, धर्मध्यानमें सविशेष अनुरक्त होकर माता गर्भ का पालन करने लगी। सं. १४०३ में पूरे दिनोंसे पांचों ग्रहोंके उच्च स्थानमें आने पर नालदेवीने पुत्रको जन्म दिया। हर्षोत्सवपूर्वक पुत्र का नाम वस्तिगकुमार रखा गया। क्रमशः बालक बड़ा होने लगा और उसमें समस्त सद्गुण आकर निवास करने लगे। एक बार श्री महेंद्रप्रभसूरि नाणिनगरमें पधारे। उनके उपदेशसे अतिमुक्तकुमारकी तरह विरक्त होकर मातापिता की आज्ञा ले सं. १४१० में वस्तिगकूमार दीक्षित हुए। वइरसिंह ने उत्सवदानादि में प्रचुर द्रव्य व्यय किया । सूरि महाराजने नवदीक्षित मुनिका नाम 'मेरुतुग' रखा।
मुनि मेरुतुग बुद्धि-विचक्षणतासे व्याकरण, साहित्य, छंद, अलंकार और पागम, वेद, पुराण प्रभृति समस्त विद्याओंके पारंगत पंडित हो गये। वे शुद्ध संयम पालन करते हुए अमृत-सदृश वाणीसे व्याख्यानादि देते
પણ શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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