________________
MILARIAAAAAA-[१७]
वर्तमान मन्दिर के पीछे की टेकरी पर एक प्राचीन किले के अवशेष दिखाई देते हैं जो शायद कान्हडदेव चौहान के सामंतों का रहा होगा। सन् १३१४ में कान्हडदेव चौहान मारे गये उसके बाद मण्डार से लेकर जालोर तक का इलाका अलाउद्दीन खिलजी के वंशवर्ती रहा । न मालूम कितने अत्याचार इस मन्दिर पर और जीरापल्ली नगर पर हुए होंगे उसके साक्षी तो यह जयराज पर्वत और भगवान् पार्श्वनाथ हैं।
सन् १३२० के बाद सिरोही के महाराव लुम्भा का इस इलाके पर अधिकार हो गया परन्तु अजमेर से अहमदाबाद जाने का यह रास्ता होने के कारण समय समय पर मन्दिर व नगरी पर विपत्तियां आती रहीं । यहाँ के सेठ लोग नगरी को छोड़ कर चले गये एवं चौहानों ने भी इस स्थान को असुरक्षित समझ कर छोड़ दिया।
वि. सं. १८५१ के शिलालेख के अनुसार इस मन्दिर में मूलनायक रूप में पार्श्वनाथ विराजमान थे। पर इसके बाद किसी कारणवश भगवान् नेमिनाथ को मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया था। इस घटना का उल्लेख किसी भी शिलालेख से ज्ञात नहीं होता। मन्दिर के बाईं ओर की एक कोठडी में अब भी पार्श्वनाथ की दो मूर्तियां विराजमान हैं एवं दूसरी कोठरी में भगवान् नेमिनाथ ।
ऐसी मान्यता है कि महान् चमत्कारी भगवान् पार्श्वनाथ की अमूल्य प्रतिमा कहीं अाक्रमणकारियों के द्वारा खण्डित न कर दी जाय इस भय से पार्श्वनाथजी की मूर्ति को गुप्त भण्डार में विराजमान कर दिया गया हो और तब तक की अन्तरिम व्यवस्था के लिए ज्योतिष के फलादेश के अनुसार नेमिनाथ भगवान् की मूर्ति को प्रतिष्ठित कर दिया गया हो।
समय समय पर जीर्णोद्धार होने के कारण एवं ऐतिहासिक शोध खोज की दृष्टि न होने के कारण मन्दिर की मरम्मत करने वाले कारीगरों की छैनो और हथौड़े से मन्दिर के पाटों और दीवारों पर के शिलालेख बहुरत्ना वसुन्धरा के गहन गर्त में समा गये हैं । शायद वे किसी समय की प्रतीक्षा में होंगे जब किसी महान् प्राचार्य के आशीर्वाद से प्रकट होंगे, तब इस मन्दिर की अकथ कहानी प्रकट होगी।
प्राचीन उल्लेखों के आधार पर पता लगता है कि इस मन्दिर की दीवारों पर दुर्लभ भित्तिचित्र थे। किन्तु समय समय पर नये रंग रोगन के काम के कारण; कहीं संगमरमर चढाने के कारण, कहीं घिसाई के कारण
और कहीं सफेदी के कारण हमारी यह ऐतिहासिक धरोहर काल कवलित हो गयी है। यात्रा एवं संघ
जैन जगत में सामूहिक तीर्थ दर्शन का बहुत महत्त्व है । सामूहिक तीर्थ यात्रा का आयोजन करने वाले भाविक को हम संघपति कहते हैं । इन संघों के साथ बड़े बड़े प्राचार्य शिष्य समुदाय के साथ विहार करते थे। जैन साधु तो चातुर्मास छोड कर शेष पाठ मास विहार करते ही रहते हैं। इन विहारों में वे मार्ग में आने वाले तीर्थों के दर्शन करते ही हैं। जीरावल तीर्थ के दर्शनार्थ पाए संघों की एवं प्राचार्यों की संक्षिप्त सूची यहां दे रहा हूँ । इस तीर्थ पर आए बहुत थोड़े संघों एवं प्राचार्यों का पता हमें लग सका है।
वीर संवत ३३० के आसपास जैनाचार्य देवसूरिजी महाराज अपने सौ शिष्यों सहित यहां विहार करते हुए आये थे एवं इन्हीं ने अमरासा द्वारा निर्मित इस मन्दिर की वीर संवत् ३३१ वैशाख सुदी १० को शुभ मुहूर्त · में प्रतिष्ठा करवाई।
અમ શ્રી આર્ય કયાણા ગૌતમસ્મૃતિસંઘ
શિક
O
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org