________________
श्री भगवत सिंह मेहता
[ ३६
संग्राम में श्री मुनि जी के पूर्वजों का विशिष्ठ योगदान रहा है । तत्कालीन विदेशी शासन के विरुद्ध आक्रमणात्मक द्याचरण के कारण सन् १८५७ में इनके पूर्वजों की जमीन जायजाद और जागीर बादि सरकार ने छीन ली थी। उनके अनेक संबन्धियों को अपने प्राणों का उत्सर्ग भी करना पड़ा था । अपने पूर्वजों की इसी राष्ट्र भक्ति की परम्परा में पलने के कारण मुनिजी राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य, ग्रान्दोलन की घोर स्वभाव और संस्कारों से आकर्षित हुए। सन् १९१९ में वे स्वर्गीय लोकमान्य तिलक के और सन् १६२० में वे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये । इसके परिणामस्वरूप श्री मुनि जिनविजयजी हमारे उस राष्ट्रीय आन्दोलन के अंग बन गये, जो न केवल भारत की राजनीतिक आजादी के लिए चलाया गया था, बल्कि जिसने एक नई राष्ट्र धारा को भी जन्म दिया था । भारतीय जागरण के इस महायज्ञ में श्री मुनि जी निरन्तर सक्रिय रहे । राजनीतिक आन्दोलन के मध्य रहते हुए भी श्री मुनि जिनविजयजी की साधना का केन्द्र मुख्य रूप से एक ही दिशा की घोर रहा। और यह दिशा भी प्राप्य विद्या के कार्य को संगठित और विकसित करना ।
I
,
बहुमुखी प्रतिभा
श्री मुनिजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं किन्तु प्राच्यविद्या के क्षेत्र में उन्होंने जो साधना की है. उससे उन्होंने न केवल स्वयं का प्रत्युत देश के नाम को गौरवान्वित किया है। इस क्षेत्र में श्री मुनिजी द्वारा की गयी सेवाओं के लिए जहाँ भारत सरकार ने उन्हें "पदम श्री" की उपाधि से अलंकृत किया था, वहाँ दूसरी ओर जर्मनी की विश्व विख्यात "ओरीएन्टल सोसाइटी" का "झोनेरी सदस्य बनने का भी सम्मान प्राप्त किया है, यह सम्मान प्राप्त करने वाले केवल श्री मुनि जी दूसरे भारतीय हैं।
श्री मुनिजी धर्मों धौर प्राच्य विद्याधों के ख्यातिनामा विद्वान् हैं। उनकी उपलब्धि के पीछे एक युगान्तकारी सेवा और साधना निहित है। उनका मांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट से भी बड़े निकट का संबंध रहा है। सन् १९१९ में वे उसके कार्यों से सम्बद्ध हुए थे और इसके पश्चात् सन् १९२० में महात्माजी के आमन्त्रण पर उनका सम्बंध महमदावाद के गुजरात राष्ट्रीय विद्यापीठ से हुआ। वे "गुजरात पुरातत्व मन्दिर" के प्राचार्य बनाये गये । तब फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्हें जर्मनी जाने का अवसर भी प्राप्त हुआ, जहां बलिन नगर में उन्होंने "हिन्दुस्तान हाउस" नामक कार्यालय की स्थापना की। इसी प्रकार से गुरु रवीन्द्र ठाकुर के विशेष आमन्त्रण पर श्री मुनिजी शान्ति निकेतन गये, जहां उन्होंने प्राकृत एवं जैन साहित्य के अध्ययन, शोध और प्रकाशन कार्य को चलाने के लिए एक जैन अध्ययन पीठ की स्थापना की। यही नहीं, कलकत में "सिंघी जैन ग्रंथमाला" और बम्बई में भारतीय विद्याभवन की स्थापना और संचालन के कार्यों के सम्पादन में भी श्री मुनिजी का अपना विशेष योगदान रहा है। चाहे तो कोई भाषा सम्मेलन हो और चाहे साहित्य अनुसंधान का कार्य श्री मुनिजी उसमें सदैव सक्रिय रहे हैं। इन सभी कार्यों की श्रृंखला में राजस्थान में मुनिजी ने जो बहुत बड़ा कार्य किया, वह है राजस्थान प्राप्य संस्थान की स्थापना का
एक महान देन
राजस्थान का पुरातत्व की दृष्टि से देश में एक महत्वपूर्ण स्थान है। समस्त देश में जितने भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org