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मुनि श्री जिनविजयजी
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान हैं, उनमें राजस्थान प्राच्य विद्या-संग्रहालय देखने योग्य हैं। इस संस्थान की स्थापना श्री मुनि जिनविजयजी के अथक और अकथ प्रयासों का ही परिणाम है । सन् १९५० में इस संस्थान का प्रारम्भ श्री मुनिजी की प्रेरणा से हुआ था । तब इसका नाम "राजस्थान पुरातत्व मन्दिर" था। इस संस्थान की. कल्पना को साकार रूप प्रदान करने के लिए श्री मुनिजी इसके प्रथम ऑनरेरी डाइरेक्टर बने । संस्थान की ओर से "राजस्थान पुरातन ग्रन्थ माला" नामक जो महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लिया गया उसका भी सुसंचालन मूनि जी द्वारा किया गया। इसके परिणामस्वरूप उनकी देखरेख में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, आदि विभिन्न भाषाओं में अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन हुअा है । अब श्री मुनिजी संस्थान के निदेशक नहीं है। किन्तु उन्होंने जो प्रकाशन क्रम प्रारम्भ किया था, वह आज भी प्रगति पर है । श्री मुनि जी ने जब इस प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान को प्रारम्भ किया था, तब इसके पास अपना कोई संग्रह नहीं था। किन्तु उन्होंने राज्य भर से प्राच्य विद्या संबंधी अत्यन्त दुर्लभ सामग्री का बहुत वृहद् भण्डार बना डाला जिसे देखने के लिए देश विदेश के विद्वान्, अनुसंधानकर्ता और कला मर्मज्ञ जोधपुर आने लगे हैं। इस अलभ्य संग्रह और संस्थान के कार्यों की सभी विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। नि: संदेह, श्री मुनि जिन विजय जी के द्वारा लगाया गया यह ज्ञान का वृक्ष आज राजस्थान की बौद्धिक वसुधरा पर राज्य का गौरव बढ़ा रहा है।
किन्तु जोधपुर स्थित प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की स्थापना कर ही श्री मुनि जिनविजयजी शान्त नहीं बैठ गये। साधक की साधना अब भी चल रही है। आज भी एक पतला-दुबला, लम्बे शरीर वाला वयोवृद्ध व्यक्तित्व एक महान साधक के रूप में अब भी प्राच्य विद्या की सामग्री के अध्ययन-मनन करने के लिए पोथियों और पत्रिकामों में भारत की सांस्कृतिक प्रात्मा को टटोलने में लीन है । उसका यह क्रम यूगों तक चलता रहा है और वर्षों तक जन-मानस पर इस महान साधक की तस्वीर, थिरकती रहेगी। ईश्वर उन्हें और अधिक आयु प्रदान करें ताकि उनके परिपक्व ज्ञान का लाभ पाने वाली पीढियों को प्राप्त होता रहे....
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