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मुनि श्री जिनविजयजी
मुनिश्री जिनविजयजी : एक सांस्कृतिक साधक -
राजस्थान में जब प्राच्य विद्या की चर्चा करते हैं, तब हमारे सामने उभर श्राता है । यों तो हमारे देश के इस सपूत ने प्राप्त की है, किन्तु राजस्थान के सांस्कृतिक और बौद्धिक जगत में एक महत्व के प्राच्य विद्या संस्थान की स्थापना उन्होंने की है, वह उनकी राष्ट्र को विशिष्ट देन है ।
वे एक बौद्धिक प्रान्दोलन हैं
कहने को तो जोधपुर स्थित राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान अब एक सरकारी संस्थान है, किन्तु उसकी कल्पना करने और उस कल्पना को मूर्त रूप देने में हमारे मुनिजी का कितना महान योगदान रहा है, उसके प्रति आभार प्रकट करना भी सम्भव नहीं है, शब्दावलि में उस योगदान को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । इस संस्थान को सरकारी दृष्टि से भी अवलोकन कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस मनीषी ने सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध राजस्थान की विपुल सांस्कृतिक और कलात्मक थाती की किस प्रकार रक्षा की है। उन्होंने एकाकी होते हुए भी वह कार्य कर दिखाया है, जो अनेकों के लिए भी सहज सम्भव नहीं है । यह कार्य भी इस कारण से सम्भव हुआ कि श्रीमुनि जिनविजयजी एक व्यक्ति नहीं, एक संस्थान हैं, एक विद्वान् मात्र नहीं, बल्कि एक बौद्धिक आन्दोलन हैं, एक साहित्यिक साधक नहीं, बल्कि देश की समग्र भावधारा के प्रतीक हैं। उनका समस्त जीवन इस बात की पुष्टि करता है कि मुनि जिनविजयजी का व्यक्तित्व देश की सामुदायिक और सामाजिक भावधारा को आगे बढ़ाने में क्रियाशील रहा है।
राष्ट्रीयता के पालने में पले थे
श्रीमुनि जिनविजयजी का जन्म राजस्थान के एक ग्राम रूपाहेली में हुआ था । वे जन्म से क्षत्रिय थे, किन्तु साधना और सेवा से जैनावलल्बी बन गये । वे पैदा तो राजस्थान में हुए थे, किन्तु उनका कर्मक्षेत्र राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल श्रादि क्षेत्रों की सीमाओंों को पार कर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र तक विस्तीर्ण हो गया । इसका कारण था कि मुनि जिनविजयजी मां भारती और सरस्वती की सेवा निरन्तर करते रहे । श्राज भी उनकी साधना का दीपक जाज्वल्यमान है । साधक का क्रम रुका नहीं है ।
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मुनि श्री जिनविजयजी का नाम बरबस राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भी प्राच्य विद्या की सामग्री का संकलन कर
सरस्वती और राष्ट्रीयता के सेवक
श्री मुनि जिनविजयजी जितने सफल सरस्वती की साधना में हुए, उतने ही प्रबल पुजारी राष्ट्रीय देवता के रहे हैं | देश भक्ति उन्हें स्वभाव और पैतृक दोनों स्त्रोतों से प्राप्त हुई है । भारतीय स्वाधीनता के
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