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मुनीश्री जिनविजयजी की कहानी ]
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व्यवस्थित करना है। मैंने उसका डायरेक्टर होना स्वीकार किया है। प्रताप विश्वविद्यालय का प्रधान महामात्र होना भी मैंने स्वीकार कर लिया है। उदयपुर महाराणा ने बड़ी मारी उदारता दिखलाई है और आशा है कि भारत भर में एक नई चीज होगी । महाराजा ने कोई ६७ लाख की स्थावर जंगल सम्पत्ति विश्वविद्यालय को देना उद्घोषित किया। मेरी स्थिति बहुत ही व्याकुल रहेगी ग्रन्थमाला के ग्रन्थ भी इसी तरह बीच में लटक रहे हैं। सम्भव है उदयपुर में उनका निपटारा होगा। वहां मुझे कुछ नये सहायक भी मिल सकेंगे। मेवाड़ के इतिहास और ऐतिहासिक सामग्री का उद्धार करना मेरा प्रधान लक्ष्य रहा है। उसे हाथ में लेने का ईश्वर ने सुयोग उपस्थित किया है। जिनेश्वरसूरि के बारे में मुझे अत्यन्त श्राकर्षण हुआ ।
कुछ लिखते हुए चित्तौड़ का
मन में तो बहुत कुछ करने की उमंगे दौड़ती रहती हैं परन्तु होता वही है जो निर्मित है - इससे होने न होने का हर्ष - शोक करना निरर्थक है— मैंने सोचा था उदयपुर में रहने का प्रसंग आया तो चित्तौड़ में जिनेश्वर सूरि का कोई बड़ा भारी स्मारक स्थापित करने कराने का प्रयत्न करूंगा लेकिन यह स्वरूप अभी तो यों ही सुप्त ही सा रह गया है— देखें भावि क्या करता है ।
अहमदाबाद २६-६-४७
बम्बई ४-१०-४५ जिसका मूल्य एक्सपर्ट प्रकाशन में लाने का रहा
है
ही कि ऐसी
मेरे पास जो बहुमूल्य सामग्री थी वह भी मैंने तो इस भवन को दे दी है विद्वानों ने ५० हजार के ऊपर ही कोती है । मेरा कुछ लोभ इस साहित्य को है इसलिये मैंने आपकी इस सामग्री को संभाल के रख छोड़ा। आपको तो ज्ञात सामग्री जो मेरे लिये इतनी उपलब्ध है कि जिससे मेरे जैसे सौ भूखों का पेट भर सकता है। जो पड़ी है जिसका मैंने छपवाने की दृष्टि से संग्रह कर रखा है वह भी अपरिमेय है । तब भी मेरा लोभ जो कि हेय है - जिसने मेरा जीवन एक प्रकार से यों ही नष्ट कर दिया -स्वास्थ्य भी बिगाड़ दिया प्रायुष्य भी अल्प कर दिया-मन में से हटना नहीं है- एकाचा फटा पना देखकर उसमें लिखा भ्रष्ट दूहा भी ज्ञात कर मुझे उसके उद्धार की लालसा हो पाती है। और इस लालसा के वश होकर जिसके प्राज कोई ४० वर्ष पूरे होने आये तो यह जीवन अपने निर्धारण के समीप पहुँच रहा है। न जाने किस दिन विलीन हो जायगा । इसलिये इस लालसा को भी हटाना है। जो कुछ काम हाथ में लिया हुआ है उसे
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समाप्त करना है ।
मैं सुबह ७ बजे से काम पर बैठता हूँ धौर रात को १ बजे बन्द करता हूँ इसमें ३-४ दिन में कभी घंटा दो घंटा बाहर जाता हूँ और वहीं नहीं जाता तब भी काम पूरा नहीं होता। कुछ विचार लिखने हुए तो उसके लिये पचासों ग्रन्थ उथलाने पड़ते हैं । महिनों के परिश्रम के बाद ५-१० पत्र लिखने की सामग्री दिमाग में जमती है । उसे व्यवस्थित लिखना भी एक काम है । आपके जैसा मनुष्य कोई साथ में दो-चार महिने रहे तो बहुत-सा काम जल्दी निपट सकता है। खेर ! ज्ञानी ने जो देखा है वही होना है पोर
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