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________________ १८ ] गोपालनारायण बहुरा व्यवस्था और कार्यालयीय मुद्दों को वे तुरन्त समझ कर हाथों-हाथ निर्णय ले लेते थे और किमी. प्रकार की उलझन पैदा नहीं होने देते थे। कभी किसी कर्मचारी अथवा सहयोगी से कोई भूल या प्रमाद बन जाता तो प्रात्मीय की तरह समझा-बुझा कर ही उसका समाधान कर देते थे-कभी किसी को दण्ड देने की बात सोचते भी न थे; उनके कार्यकाल में निलंबन, निष्कासन तो दूर रहा, किसी कर्मचारी को कठिन चेतावनी देने तक का अवसर नहीं पाया । मुनिजी अपना काम अपने हाथ से ही करते थे-जो कुछ लिखना होता स्वयं लिखते-डिक्टेशन देना उन्हें अच्छा नहीं लगता था । अांखों से बहुत कम दिखाई देने लगा तो भी रात में तेज पावर के बल्ब लगाकर एकाकी पढ़ते ही रहते थे । मनन तो उनका चलता ही रहता था, जब लिखने पढ़ने के काम में जुटते तो रात दिन एक कर देते थे, परन्तु यह सब कुछ वे स्वयं ही करते थे, सहयोगियों को इससे कोई कष्ट या असुविधा नहीं होती थी । और, अब भी उनका यही हाल है; दृष्टि अत्यन्त क्षीण हो जाने पर भी कोई न कोई जुगत लगाकर जितना हो सकता है उतना पढ़ते ही रहते हैं; आने जाने वालों से साहित्यिक, शैक्षणिक और खोज सम्बन्धी बातें बड़े उत्साह से करते हैं; उनकी वाणी में कोई शिथिलता नहीं आई है। ___ मैंने मुनिजी के सामने बहुत बड़े-बड़े आदमियों को प्रणत होते हुए देखा है, यहाँ तक कि भू० पू० भारत-राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी भी उनको बहत आदर देते थे और अति विनम्रतापूर्वक सम्बोधित करते थे, परन्तु इससे मुनिजी में किसी प्रकार का हर्ष या अभिमान उत्पन्न नहीं हा–प्रतिष्ठान के कार्य के लिये वे सचिवालय के किसी भी सामान्य से लेखक के सामने जा खड़े होते और उसको बड़े सौजन्य और सद्भाव से कर्तव्य-बोध कराकर काम पूरा करा लेते थे। एक बार एक अधिकारी से भेंट करने गए-उन महोदय ने बार-बार सूचना देने पर भी दिन के बारह बजे से शाम के चार बजे तक मुनिजी को अन्दर बुलाया ही नहीं। इधर मुनिजी थे कि डटकर खड़े हो गए और उनके कमरे के बाहर अविचल होकर खड़े ही रहे, चार बजे तक टस से मस नहीं हुए और अन्त में अधिकारी महोदय से मिल कर ही आये । प्रतिष्ठान का कार्य था, कोई निजी प्रार्थना-पत्र लेकर नहीं खड़े थे। इसके विपरीत यह भी देखा कि मुनिजी कभी किसी मिनिस्टर से मिलने उसके दरवाजे पर नहीं जाते थे, जैसा कि प्रायः अन्य अधिकारी लोग करते हैं। मुनिजी आडम्बर और थोथे दिखावे को कभी पसन्द नहीं करते । सराहनीय और महत्वपूर्ण कार्यों को लक्ष्य में लेकर भारत सरकार ने उनको पद्मश्री से अलंकृत किया। इसके लिए उन्हें दिल्ली जाना पड़ा। हम लोग भी साथ गये। वहाँ मुख्य समारोह के बाद कुछ प्रशंसकों और संस्थानों ने सम्मान-समारोह करने की इच्छा प्रकट की परन्तु मुनिजी ने इसे अनावश्यक प्राडम्बर समझा और तुरन्त ही लौट पाये । व्यङ्गय विनोद में भी मुनिजी किसी से कम नहीं हैं। उनकी चुटकियां तथ्य भरी और चोट करने वाली होती हैं। एक बार बहुत बड़े-बड़े अधिकारी विभाग के कार्य का निरीक्षण करने पाए। उस समय कुछ ग्रन्थ तो प्रकाशित हो चुके थे और कुछ प्रकाशनाधीन थे; उनका मुद्रण कार्य शायद वित्तीय स्वीकृति में विलम्ब के कारण रुका हना था । हम लोगों ने उन फार्मों को लाल लेस में अलग-अलग बांधकर निरीक्षगार्थ रख दिया था । अधिकारियों ने जिल्द-बंधे ग्रन्थों की बगल में फार्मों को देख कर उनके बारे में पूछा तो मुनिजी ने तुरन्त कह दिया ये अभी 'लाल फीते' के नीचे हैं।' सब लोगों में कहकहा लग गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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