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राजस्थान को मुनिजी की देन
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के साथ मन्दिर का मुख्य कार्यालय जोधपुर स्थानान्तरित हो गया। यहां पर कार्य और भी अधिक उत्साह से चला और सरकार ही नहीं, अन्य कतिपय संग्रह-स्वामियों ने भी श्रीमुनिजी की प्रेरणा से बहजनहिताय अपने बड़े बड़े संग्रह पुरातत्व मन्दिर (जिसका अब राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान नाम हो गया था) को भेंट कर दिये, इनमें विद्याभूषण पुरोहित हरिनारायण संग्रह, स्व. लक्ष्मीनाथ शास्त्री संग्रह, विश्वनाथ शारदानन्दन संग्रह, जयपुर में और मोतीचंद खजाञ्ची संग्रह, श्री पूज्यजी संग्रह, यति जतनलाल संग्रह, हिम्मतविजयजी संग्रह, बीकानेर में विशेष उल्लेखनीय हैं । सरकार ने भी अपने संग्रहालयों और पुस्तकालयों में रखे हए हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रहों को प्रतिष्ठान के ही प्रायत्त कर दिया। इस प्रकार प्रतिष्ठान ने बढ़ कर एक विभाग का रूप ले लिया और जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा, उदयपुर, चित्तौड़ और बीकानेर में शाखाकार्यालयों की स्थापना हई। इन सभी संग्रहों के ग्रन्थों की संख्या ५५ हजार से ऊपर है जिनमें बीकानेर में ही २२ हजार ग्रन्थ हैं और मुख्य कार्यालय में प्रतिवर्ष की खरीद से जो संग्रह होता रहा वह भी ३५ हजार से ऊपर पहुंच गया था।
प्राचीनतम ग्रन्थों के संग्रह के लिए जैसलमेर के जैन-ग्रन्थ-भण्डार प्रसिद्ध हैं। राजस्थान में प्रागमन से पूर्व मुनिजी ने वहां रह कर ग्रन्थों का निरीक्षण करके उद्धार-योजना बनाई थी। उस समय उनके माथ ८-१० साथी भी वहीं रहे थे। बाद में, मुनिजी के गुरुभाई मुनिवर्य पुण्यविजयजी ने यह कार्य अपने हाथ में ले लिया और वे अब भी वहां की सूचियों तथा ग्रन्थों के प्रकाशन-कार्य में संलग्न हैं । परन्तु राजस्थान की इतनी बड़ी शोध-संस्था प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान को इस महान कार्य में योगदान देने से मुनिजी अलग कैसे रख सकते थे ? उनके प्रस्ताव पर, प्रथम पञ्चवर्षीय योजना में ही सरकार ने प्रतिष्ठान के लिए समुचित धनराशि का प्रावधान किया और उससे जैसलमेर ग्रन्थ-भण्डारों में से प्रायः सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थों की फोटोस्टाट कापियां तैयार करवा कर प्रतिष्ठान के संग्रह में सुरक्षित कर ली गई तथा उनमें से अनेक का प्रकाशन भी किया गया । इतने बड़े दायित्वपूर्ण और दुरूह कार्य को सफलता से सम्पन्न करना मुनिजी का ही कार्य था । अब जैसलमेर जा कर ग्रन्थावलोकन की अ-सरल प्रणाली का सामना किए बिना ही अनुसन्धित्सु विद्वान् प्रतिष्ठान में बैठकर आसानी से अभीष्ट ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं ।
इस प्रकार सत्रह वर्ष से भी अधिक समय तक अपनी पूरी शक्ति लगाकर श्रीमुनिजी प्रतिष्ठान को उत्तगेत्तर समृद्ध, प्रवृद्ध और प्रसिद्ध करते रहे जिससे राजस्थान सरकार का गौरव इस प्रकार की प्रवृत्ति में निराला ही माना गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर भारत के किसी भी अन्य प्रान्त में ऐसे बड़े पैमाने पर ऐस। शोध-प्रतिष्ठान अब तक संस्थापित नहीं हमा।
प्रतिष्ठान की संस्थापना के लिए बीजरूप से जिस दिन विचार हया उसी दिन से मुझे श्री मुनिजी के साथ रह कर कार्य करने का अवसर मिला और मैं विगत सत्रह वर्षों की अवधि में प्रायः निरन्तर ही
उनके सम्पर्क में रहा । मुनिजी एक कुशल, प्रशिथिल और सहृदय प्रशासक रहे हैं । उनके कार्यकाल में . विभागीय कार्यकर्ताओं में कभी असंतोष या असद्भावना का लेश भी उत्पन्न नहीं हुअा। सभी कर्मचारी एक परिवार की तरह एकजुट होकर प्रतिष्ठान का कार्य तनमन से करते थे। छोटे और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों के प्रति तो मुनिजी का व्यवहार बहुत ही सहानुभूतिपूर्ण रहता था। वे यथाशक्ति उनकी सहायता करते रहते और अपने प्रत्येक दौरे पर उनको इनाम-इकराम देते ही रहते थे।
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