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गोपालनारायण बहु
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दिया गया संस्कृत मण्डल का भाग्य भी इन सभी के साथ बंधा हुआ था और 'पुरातत्व मन्दिर' भी उसी में अटका हुआ था। परन्तु मुनि जी अपने संकल्प पर हड़ थे। उन्होंने और पं० श्यामसुन्दर शर्मा ने, जो शास्त्री जी के त्यागपत्र दे देने के बाद भी सरकार में चालू थे प्रयत्न जारी रखे। अन्तरिम सरकार के गृह एवं शिक्षा मंत्री श्री भोलानाथ झा को 'पुरातत्व मन्दिर' के उद्देश्य धौर कार्यक्रम से अवगत कराया गया । वे 'मन्दिर' को देखने और मुनि जी से मिलने स्वयं 'संस्कृत कालेज भवन' में आए उस दिन मुनि जी उवर पीड़ित थे परन्तु फिर भी उन्होंने झा महोदय को संक्षेप में सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट रूप से कह सुनाई। वे मुनि जी के व्यक्तित्व और वक्तव्य से बहुत प्रभावित हुए और उस समय से पहले साक्षात्कार न कर सकने का पश्चात्ताप प्रकट किया। श्री झा साहब ने सहृदयतापूर्वक 'मन्दिर' को राजकीय शोध संस्थान विभाग के रूप में चालू रखने की स्वीकृति प्रदान कर दी और १ अप्रेल १९५१ से यह एक सरकारी विभाग बन गया। श्री मुनि जी यथावत् इसके सम्मान्य संचालक रहे तथा मन्दिर का बजट, किञ्चित् काट-छांट के बाद, सरकारी बजट में सम्मिलित हो गया।
इसके बाद ही पुरातत्त्व मन्दिर का कार्य दिनों-दिन नियमित रूप से आगे बढ़ने लगा और सरकार का ध्यान भी उत्तरोतर इधर माकृष्ट हुआ। संस्कृत कालेज भवन के दो तीन कमरे अपर्याप्त सिद्ध हुए और मन्दिर का एक निजी भवन निर्माण कराने की बात भी स्वीकृत हुई ।
मुनि जी की उपयोगिता और प्रभावशीलता उस समय और भी प्रबल रूप में सामने आई जब उनकी अध्यक्षता में गठित आबू समिति ने अपने प्रतिवेदन में तथ्यपूर्ण और अकाट्य भौगोलिक, ऐतिहासिक प्राचीन साहित्यिक सन्दर्भों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि बाबू राजस्थान का ही अंग रहा है और न कि गुजरात का इस पर प्रान्तीयता की संकुचित भावना से ग्रस्त मुनि जी के कुछ मित्रों ने नांक भी सिकोड़ी परन्तु उन्होंने न्याय्य पथ को नहीं छोड़ा
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।
सरकार ने पुरातत्त्व मन्दिर के लिए भवन निर्माण की योजना स्वीकार करली और १ अप्रेल, १९५५ ई० को जोधपुर में भारत के प्रथम राष्ट्रपति माननीय डॉ० राजेन्द्रप्रसाद ने उसका शिलान्यास किया । उस समय राष्ट्रपति महोदय ने कहा था 'देश में अन्यान्य वस्तुओं के उत्पादन और प्राप्त करने के काम में अनेक लोग लगे हुए हैं और उनके निमित्त बहुत-सा धन भी व्यय किया जा रहा है परन्तु हमारी पुरातन संस्कृति के अनुसन्धान और उद्धार के काम में मुनि जो जैसे कर्मठ, त्यागी और तपस्वी बिरले ही लोग लगे हुए हैं मेरा वश चले तो इस काम के लिए अधिक से अधिक धन देने की व्यवस्था करू' स्व० राजेन्द्र बाबू के ये उद्गार इस बात के प्रमाण हैं कि मुनि जी के उदात्त चरित्र और सदुद्देश्य की प्रशंसा देश के सर्वोच्च स्तर पर की जाती रही है।
जोधपुर में भवन तैयार होने में तीन वर्ष से अधिक समय लगा । इस बीच में मन्दिर का ग्रन्थसंग्रह सन्दर्भ पुस्तकालय और प्रकाशित ग्रन्थों का स्टाक काफी बढ़ गया था। अन्त में १४ दिसम्बर, १९५८ को राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया ने नए भवन का उद्घाटन किया और सम्पूर्ण संग्रह
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