________________
राजस्थान को मुनिजी की देन
[ १५
मंदिर' की स्थापना का प्रस्ताव उसकी एक मोटी रूपरेखा के साथ प्रस्तुत किया, वह सभी को मान्य हरा। शर्मा जी ने मुझे मुनि जी से मिला कर 'मन्दिर' के लिए बजट और कार्य-क्रम की रूपरेखा आदि तैयार करने का आदेश दिया और यहीं से मैं मुनि जी के सम्पर्क में आने लगा। मुनि जी ने जो रूपरेखा तैयार कराई तदनुसार बजट का ढाँचा बनाकर मैंने शर्मा जी को प्रस्तुत कर दिया और उन्होंने अपने विशेष प्रयास से 'सस्कृत मण्डल' के अन्तर्गत 'पुरातत्व मन्दिर' की योजना व बजट स्वीकार करा लिया। 'मन्दिर' के संचालक पद पर पहले तो म० म.. गिरिधर शर्मा जी को नियुक्त करने की बात सोची गई थी परन्तु वे उस समय काशी में ओरियण्टल स्टडीज़ के डाइरेक्टर थे और काशीवास का लोभ छोड़ने को तैयार नहीं थे, इसलिए श्री मुनि जी से यह पद स्वीकार करने के लिए प्राग्रह किया गया। मुनि जी भी भारतीय विद्याभवन, बम्बई के सम्मान्य डाइरैक्टर थे और उनकी अन्यान्य सामाजिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियाँ चल रही थीं, इसलिए उन्होंने भी इस पद को यहाँ पर नियमित रूप में तो स्वीकार नहीं किया, परन्तु यथावकाश आते रहकर संस्था को जमाने व परामर्श देते रहने की बात मान ली। उस समय मुनि जी की अवस्था यद्यपि ६३-६४ वर्ष की थी और बम्बई, अहमदाबाद तथा चन्देरिया (चित्तौड़) से वहां की परिश्रमसाध्य प्रवृत्तियों में भाग लेकर लम्बे-लम्बे प्रवास और यात्रा करने में जो श्रम और असुविधा होने वाली थी उसका उनको ध्यान था, परन्तु कार्य की गुरुता और परमावश्यकता को देखते हुए उन्होंने इस बोझ को अपने ऊपर प्रोढ़ ही लिया । वास्तव में, यह कार्य और किसी से हो भी नहीं सकता था और यदि किसी पर थोप भी दिया जाता तो वह सफलता न मिलती जो मुनि जी के द्वारा प्राप्त हुई है। और, अब देख ही रहे हैं कि मुनि जी की निवृत्ति के उपरान्त जो दशा हो रही है ।
अस्तु, मुनि जी ने यह कार्यभार सम्मान्य (ऑनरेरी) संचालक के रूप में स्वीकार कर लिया और १३ मई, १६५० ई० को महाराजा संस्कृत कालेज भवन में एक उत्तराभिमुख कमरे में तत्कालीन प्रिसीपल पं० पट्टाभिराम जी शास्त्री और पं० सूर्य नारायण जी वेदिया द्वारा अनुष्ठित पूजा सम्पन्न करके 'पुरातत्व मन्दिर' का शुभारम्भ कर दिया। मैं भी उस समय उपस्थित था। कोई विशेष समारोह नहीं किया गया, किसी मंत्री को ग्रामन्त्रित नहीं किया गया और न कोई प्रचार-प्रसार ही किया गया। मुनि जी को दिखावा पसन्द नहीं है, ठोस काम करने में ही उनकी आस्था है।
बजट के अनुसार 'पुरातत्व मन्दिर' में दो सहायक, एक अंशकालीन लेखक और दो चपरासियों के ही पद स्वीकृत हुए थे। मुनि जी ने अपनी सुविधा और रौब-दाब सहित दफ्तर जमाने की परवाह न करके सब से पहले कुछ आवश्यक सन्दर्भ-ग्रन्थों और कुछ हस्तलिखित ग्रन्थों को खरीदने तथा पाँच दूर्लभ्य अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रकाशित करने की योजना प्रस्तुत की जो स्वीकार कर ली गई और इस प्रकार पुरातत्त्व मन्दिर का कार्यारम्भ अकेले मुनि जी ने ही कर दिया; सहायकों आदि की नियुक्तियाँ तो बाद में होती रहीं। उन्होंने अपने ही दम पर तो यह दयित्व संभाला था, वे जानते हैं
'सतां सिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे'।
मई मास से काम चालू होकर आगे बढ़ा परन्तु दिसम्बर में शास्त्री-सरकार डगमगाने लगी और जनवरी, ५१ में वह अपदस्थ हो गई। नई अन्तरिम सरकार ने बैठते ही पिछले तन्त्र के किए को अनकिया करने का उपक्रम प्रारम्भ कर दिया और पहला कदम यह उठाया कि दसों विकास मण्डलों को समाप्त कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org