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राजस्थान को मुनिजी की देन
उस दिन राजस्थान सचिवालय में बहुत से आदमियों ने कहा, 'आज तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी पधारे हैं'; दूसरों ने कहा, 'नहीं, यह महोदय तो कोई और ही हैं, परन्तु प्राकृति राजाजी से बहुत मिलती है।' वास्तव में, मुनि जिन विजय जी को देखकर यह चर्चा हो रही थी। उनकी पार्श्व-झलकी में ऐसा ही आभास होता है। स्वयं राजाजी ने भी भारतीय विद्याभवन, बम्बई के एक समारोह में खींचे गए फोटो पर लिख दिया है 'Who is Muniji and who is I'। विशिष्ट पुरुषों की प्राकृतियाँ भी विशिष्ट ही होती हैं।
मार्च, १९५० की शायद ८वीं तारीख थी। उस दिन श्री मुनि जी राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हीरालाल शास्त्री द्वारा गठित दस मण्डलों के अन्तर्गत 'संस्कृत-मण्डल' की बैठक में भाग लेने के लिए आए थे । बैठक मुख्यमंत्री के कक्ष में ही हुई थी और स्वयं शास्त्री जी इस मडल के अध्यक्ष थे तथा उनके मुख्य निजी सचिव स्व. पं० श्यामसुन्दर शर्मा मंत्री थे। स्व० म० म० ५० गिरिधर शर्मा, स्व०५० मथुरानाथ शास्त्री, स्व० विश्वेश्वरनाथ रेऊ, पं० शम्भुदत्त शर्मा, पं० मार्कण्डेय मिश्र, पो० कण्ठमरिण शास्त्री आदि सदस्यरूप में उपस्थित थे; अन्य भी थे, जिनके नाम मुझे अब याद नहीं हैं; मुनि जी तो थे ही। सचिवालय में पं० श्यामसुन्दर शर्मा के सहायक के रूप में संस्कृत-मण्डल का काम मुझे करना पड़ता था अत: मैं भी उसमें शामिल हुआ था।
बैठक में संस्कृत-मण्डल की विभिन्न प्रवृत्तियों के विषय-निर्धारण के अतिरिक्त मुनिजी का प्रस्ताव बहत जोरदार रहा। उन्होंने अपनी प्रोजभरी वाणी में कहा, 'और तो सभी बातें हो रही हैं और चलेंगी, परन्तु मैं आपका ध्यान एक विशेष बात पर दिलाना चाहता है। राजस्थान में बहत बड़ी हस्तलिखित ग्रन्थसम्पदा है, जो दिनों-दिन नष्ट होती जा रही है और यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो कुछ दिनों में कुछ भी नहीं बचेगा और हम लोगों को एक महान सांस्कृतिक खजाने से हाथ धोना पडेगा। अत: इसकी रक्षा के लिए समुचित उपाय होना चाहिए। उनके वक्तव्य का यही प्राशय था । सदस्यों ने इस प्रस्ताव की हृदय से सराहना की और इस दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता को अनुभव किया। उसी समय यह भी विचार हा कि जल्दी ही अागामी बैठक बुलाई जाय और उसमें श्री मुनि जी राजस्थान में ग्रन्थों के संग्रह, सुरक्षा और प्रकाशन सम्बन्धी कार्य करने के लिए अपनी योजना प्रस्तुत करें।
__ बैठक के बाद पं० श्यामसुन्दर शर्मा ने मुझे मुनि जी से मिलाया और कहा 'यह जयपुर महाराजा के पोथीखाने से आये हैं अतः ग्रन्थों के बारे में आपकी सहायता कर सकेंगे' बस, सब से पहले यही परिचय मुनि जी से हुआ था।
मंडल की दूसरी बैठक शायद २८/२६ मार्च, १९५० को हुई और मुनि जी ने 'राजस्थान पुरातत्व
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