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________________ भारतीय कला के मुख्य तत्त्व भारतीय कला भारतवर्ष के विचार धर्म, तत्वज्ञान और संस्कृति का दर्पण है। भारतीय जन जीवन की पुष्कल व्याख्या कला के माध्यम से हुई है। यहां के लोगों का रहन-सहन कैसा था, उनके भाव क्या थे, देवतत्व के विषय में उन्होंने क्या सोचा था, उनकी पूजाविधि कैसी थी और पंचभूतों के धरातल पर उन्होंने कितना निर्माण किया था इसका अच्छा लेखा-जोखा भारतीय कला में सुरक्षित है। वास्तु, शिल्प, मूर्तियां, चित्र, कांस्य प्रतिमा, मृभाजन, दंतकर्म, काष्ठ कर्म, मणिकर्म, स्वर्णरजत कर्म, वस्त्र आदि के रूप में भारतीय कला की सामग्री प्रभूत मात्रा में पायी जाती है। देश के प्रत्येक भाग में कला के निर्माण की ध्वनि सुनाई पड़ती है। एक यूग से दुसरे युग में कलात्मक के केन्द्र दिशा--दिशानों में छिटकते रहे, किंतु यह विविध सामग्री समुदित रूप से भारतीय कला के ही अन्तर्गत है। __ भारतीय कला को दीर्घकालीन रूप सत्र कहना उचित है, जिसमें देश के प्रत्येक भू भाग में अपना अर्ध्य अर्पित किया है। इस रूप समृद्धि में अनेक जातियों ने भाग लिया है, किन्तु इसकी मुल प्रेरणा और अर्थव्यंजना मुख्यतः भारतीय ही है। जब भारतीय संस्कृति का प्रसार समद्र पार और पर्वतों के उस पार हुअा तब भारतीय कला के रूप और उसके अर्थ भी उन २ देशों में बद्ध मूल हुए। सुभाग्य से वह सामग्री आज भी अधिकांश में सुरक्षित है। और भारतीय कला के यशः-प्रवाह की कथा कहती है। द्वीपान्तर या हिंदेशिया से लेकर मरु-चीन या मध्य-एशिया तक का विशाल भू-खण्ड भारतीय कला की मेघवृष्टि से उत्पन्न फुहारों से भर गया । वह आन्दोलन कितना गम्भीर और बलिष्ठ था। इससे आज भी अाश्चर्य होता है। भारतीय कला के संपूर्ण व्यौरेवार अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के साथ मिलाकर उसे देखा जाय । जिसकी सामग्री वेद, पुराण, काव्य, पिटक, आगम आदि नानाविध भारतीय साहित्य में पायी जाती है । तिथि-क्रमः कला की यह सामग्री देश और काल दोनों में महा विस्तृत है । इराका प्रारम्भ सिंधु उपत्यका में तृतीय सहस्राब्दि ईस्वी पूर्व से होता है और लगभग ५ सहस्त्र वर्षों तक इसका इतिहास पाया जाता है । इस तिथि-क्रम का लगभग सुनिश्चित आधार इस प्रकार है । १. सिंधु सभ्यता की कला - लगभग २५०० - १५०० ई० पू० २. वैदिक सभ्यता – लगभग २००० - १००० ई० पू० ३. महाजनपद युग - लगभग १२०० - ६००ई० पू०. ४. शेषनाग नन्द युग - लगभग ६००- ३२६ ई० पू० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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