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वितण्डा
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नथी अने तेथी तेमने पोतानो कोई मत के वाद न थी । विरोधीनु खंडन करतां जा दलीलीनो से उपयोग करे छे तेमांम कदाच कोई जून्दा मत के पक्षनो सीधो के ग्राङकतरो स्वीकार थतो होय तो पण आ तान्डिने अभिप्रेत तो न थी ज । कोई आमतनी स्थापना करवा प्रवृत्त थाय तो ग्रेज वैताण्डिक खंडन करवा तत्पर बने अने त्यारे नाथी विरुद्ध मतनो स्वीकार करतो जरणाय । जयराशिभट्टनां तत्वोपप्लवसिंह पर दृष्टिपात करतां श्रा सहेजे समजाय छे । सत्कार्य वादनु खंडन करता वैताण्डिकने सत्कार्यवाद मान्य छे प्रेम लागे परण ग्रेज वैताण्डिक प्रसत्कार्य वादनु परण खंडन करे छे, अनेत्यारे तेने सत्कार्यवाद मान्य होय येवु लागे छे । वास्तवमां तेने प्रेक पर मान्य नथी ने प्रतीत्य समुत्पाद के विवर्तवाद के कोई परणवाद मान्य न थी । तेने प्रमाणिक पणे प्रेम लागे छे के कोई ज्ञान ने प्रमाण भूत मानी शकाय तेम न थी । तेथी कोई वाद ते शी रीते स्थायी शके के स्वीकारी शके ! प्रमेयनी स्थापना प्रमाण पर आधारित छे अने प्रमाण साचु लक्षण प्रापी शकाय तो ज प्रमाणनी स्थापना थई शके परण प्रमाणनु कोई पण लक्षण दोष रहित ( - तर्कशास्त्रने मान्य सिद्धान्तो प्रमाणे परण ) जगातु नथी तेथी प्रमेयनी स्थापना शक्य बनतो न थी । श्रा संजोग मां परम तत्व अंगे के बीजु परण कशु कहेवु शक्य न थी । बां लौकिक ने शास्त्रीय व्यवहार अविचारित रमणीय चाले छे [ सल्लक्षण निबंधन मानव्यवस्थानम्, माननिबन्धना च मेयस्थितिः, तदभावे तयोः सद्व्यवहार विषयत्वं कथं [ स्वयमेव ] - तत्त्वोपप्लवसिंह, पृ. १; तदेवमुपप्लुतेष्वेव तत्त्वेषु प्रविचारित - रमणीया सर्वेव्यवहारा घटन्ते - पृ. १२५
वितण्डा-पद्धतिनो स्वीकार संजय वेलट्ठिपुत्र ( बुद्धना समकालीन), जयराशिभट्ट ( वीं सदी), माध्यमिको अने श्रीहर्ष ( १२वीं सदी) जेवा श्रद्वैत वेदान्तीमोनी विचार- सररिंग ग्रने प्रतिपादन मां जोवा मले छे, आ लोको केवल दोषदर्शी हता ने सूक्ष्म विचारक न होता प्रेम तो कोई कही शके तेम नथी । तेथी आपणे मानवाप्रेराईसे छी के वितण्डानु प्रतिपारन जे रीते न्याय-प्रथोमा करवामां आव्यु छे ते पूतु नथी ने उद्योतकर, वाचस्पति बगेरे श्रे वितण्डा सा रहस्य पकडयु न थी । जयंत जेवा पाथी यहा प्रापरत्वे बधारे विवरण प्राप्त थतु न थी । पण उदयने ( १०वीं सदी) पोतानी परिशुद्धि मां सनातनिना मतनो उल्लेख करचो छे जे प्रमाणे कथा चतुविध छे कारण के वितण्डा ने प्रकारनी छे तेमांवाद के जल्पनां लक्षणो होय ये अनुसार । [ प्रौढगौड नैयायिक मते चतस्त्रः कथाः । स प्रतिपक्ष स्थापनाहीनो वितण्डा' ( न्यायसूत्र १-२-३ ) इन्यत्र जल्पवद वादस्यापि परामर्शात् । पुरुषाभिप्राय नुरोधेन चतुर्थोदाहरणस्यापि उपपत्त रीति सानातनिः - परिशुद्धि १.२.१ - History of Navya Nyaya in Mithila, P. 1 – दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य, दरभंगा, १९५८ - मां थी उद्धृत ) । शंकर मिश्र ( १६वीं सदी) पण वादि विनोद (पृ. २) मां श्रा मत नो उल्लेख करचो छे । सानातनिने मते वादी वादनां लक्षण जेमां छे तेथी कथा (चर्चा) मां पोताना कोई पक्ष स्थापन करया बिना पर पक्ष खंडन मात्र करे ये शक्य छेज । न्याय परिशुद्धिमा वेंकटनाथे ( १३वीं सदी) पण वितण्डानां वे प्रकार छे-वादी वीतराग के विजि गीषु होय ग्रे प्रमाणे- तेवा मत नो उल्लेख करयो छे, जो के वेंकटनाथ पोते आ मतनी साथ संगत थता नथी कारण के सत्यनिर्णयनी बंखना बालो वीतराग प्रतिपक्षना खंडन मात्र थी संतुष्ट न ज थाय । तेने तो जेने अंगे चर्चा थई रही छे ग्रे वस्तुना स्वरूपनी प्रतीति इप्ट छे ( के चित्तु वितण्डाय मपि वीतरागविजिगीषुभेदाद भेदमाहुः न्यायपरिशुद्धि, पृ. १६६ ) । दूषणमात्रं वितण्डा, परपक्षे दीपवचनमात्रमेवने लक्षणो तो ग्रापगे जोयां ज छे । तेथी व मानवानी प्रेरणा थाय छे के प्रावा लक्षणो प्राचीन काल
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