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________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व इसी लेख में अन्य कई रूप हैं जो प्राकृत प्रभाव से मुक्त हैं; जैसे-'अस्ति' के स्थान पर 'अत्ति' न होकर 'अस्ति' का ही प्रयोग, जो 'सकार' के प्रबल आग्रह और अस्तित्व का प्रमाण है। इससे एक श्री पाता है कि इस बोली में गाव था। शहबाजगढ़ी और मानसेरा की लिपियों में जहाँ 'ष' का प्रयोग हुआ है वहाँ ऐसे स्थान पर इसमें 'स्' ही मिलता है-- गिरनार - सवे पासंडा वसेवू ति । शहबाजगढ़ी - सन प्रषंड बसेयु -। मानसेरा सव पषड वसेयु - । संस्कृत सर्वे पाषंडा: वसेयु इति 135 इसी प्रकार तालव्य श्' का भी अमाव दीख पड़ता है और उसके स्थान पर भी दत्य 'स्' का ही प्रयोग मिलता है गिरनार -सयमं च भावधिं च इछति । शहबाजगढ़ी -सयम भवशुधि च इछति । मानसेरा -सयम भवशुधि च इछति । संस्कृत --सयमं (च) मावशुद्धि च इच्छति ॥ 38 इससे यह स्पष्ट है कि इस प्रान्त में प्राकृत के प्रभाव के समय स्थानीय बोलियों की प्रवृत्तियाँ अत्यधिक प्रबल थीं। कुछ अन्य और उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायगा-- (१) संयुक्त व्यंजन की अस्वीकृति : (क) च्च और च्छ : उचावचछंदो-सं० उच्चावच्छन्दाः (हिन्दी-ऊंच नीच विचार से) उचावचरागो--सं० उच्यावचरागाः (हिन्दी-ऊंच नीच राग के) (ख) क्त : हिढभतिता --सं० दृढभीकता : भाव सुधिता --सं० भाव शुद्धिता (२) ऋ के स्थान पर व्यञ्जन की प्रवृत्ति के अनुसार 'अ', 'इ' और 'उ' -- (क) क के साथ 'अ' ---कतंत्रता--सं० कृतज्ञता (ख) द् के साथ 'इ'--दिढभतिता-सं० दृढभीकता एतारिसानि-सं० एतादृशानि (ग) पं के साथ 'उ' -धमपरिपुछा सं० धर्मपरिपृच्छा ३८-देखो--नागरी प्रचारिणी पत्रिका में-प्रोझा-'अशोक की धर्म लिपियाँ। ३६--'श्' तथा '' के स्थान पर 'स्' के उच्चारण के अन्य उदाहरण : दसबामिसितो--सं० दशवर्षाभिसिक्तः धंमानुसस्टी --सं० धर्मानुशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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