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श्री उदयसिंह भटनागर प्राकृत, (२) मध्य देशी प्राकृत और (३) प्राच्य प्राकृत । उदीच्य प्राकृत का प्राचीनतम लिखित रूप गान्धार प्रान्त के शाहबाज गढ़ी और मानसेरा के शिलालेखों में मिलता है। (२) प्राच्य प्राकृत मागधी का एक रूप था।
राजस्थान के उत्तर पूर्व से उत्तर पश्चिम सीमाओं तक जो आर्य प्रभाव फैल रहा था उसमें प्राप्त शिलालेखों में वैरठ और सौरठ के शिलालेख भी हैं। इनमें वैरड के शिलालेख की भाषा शुद्ध प्राकृत मानी गई है । परन्तु सौरठ के गिरनार वाले शिलालेख की भाषा वहाँ की बोली हैं । जिसमें कहीं कहीं प्राच्य प्राकृत के रूप मा गये हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि जहाँ जहाँ प्राकृत प्रभाव फैला था वहाँ अशोक के ये शिलालेख प्राच्य प्राकृत में खुदवाये थे, और जहाँ प्राकृत का प्रभाव नहीं था, वहाँ स्थानीय बोली में । इससे यह स्पष्ट होता है कि सौराष्ट्र का सम्पर्क उस समय तक पूर्व से हो चुका था। परन्तु भाषा (प्राच्य) का उतना प्रभाव नहीं पड़ा था। इसी कारण वहां की बोली और निकटतम प्राकृत का प्रयोग इस लेख में किया गया। सौरठ की इस प्राकृत और मध्य देश की प्राकृत में मौलिक भेद था। मारवाड़ और सौरठ-जो विविध जातियों के प्रसार और सम्पर्क के कारण निकट आ चुके थे—की बोलियों पर जिस प्राकृत का प्रभाव पड़ा वह न तो मध्य देशी प्राकृत थी और न प्राच्य प्राकृत ही । इन पर उदीच्य प्राकृत का प्रभाव था, जो उत्तरपश्चिमी प्रदेश तथा पंजाब से आया था। इसका कारण यह लगता है कि पश्चिम पंजाब, सिन्धु, सौरठ और मारवाड़ की अधिकतर जातियां उस समय तक द्रविड़भाषी अनार्य जातियाँ ही थीं। इन्होंने अपनी भाषा प्रवृत्ति के आधार पर ही आर्य भाषा (प्राकृत) को ग्रहण किया था। मारवाड़ी में कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ वर्तमान हैं जो इस प्रभाव की द्योतक हैं। उदाहरणार्थ गिरनार के शिलालेख की भाषा में 'त्म' और 'स्व' को 'त्प' के रूप में ग्रहण किया गया है :
परिचजित्पा-सं० परित्यजित्वा प्रारभित्पा/सं० पालभित्वा
यह उस बोली की एक विशेषता थी। इसी 'त्प' का आगे चलकर प्राकृत की सावर्ण्य प्रवृत्ति के कारण द्वित्व हो कर 'प्प' हुअा। इसी द्वित् 'प्प' को उद्योतनसूरि (वि० सं० ८३५) ने 'अप्पा तुप्पा भरि रे अह पेच्छइ मारुए तत्तो' कहकर उस समय की मारवाड़ी प्रवृत्ति के रूप में उल्लेखित किया है। उदीच्य प्राकृत का प्रभाव इसमें एक अन्य उदाहरण से भी लक्षित होता है। वह है 'ल-कार' के स्थान पर 'र-कार' की प्रधानता जो 'पारभित्वा' और 'पालभित्वा' में दृष्टिगोचर होती है । ३७ इसी प्रकार मारवाड़ी में 'ष्ट' के मुद्धन्य 'ष' के स्थान पर दन्त्य 'स' की सीत्कार ध्वनि बड़ी स्पष्ट सुनाई पड़ती है, जो सम्भवतः आर्य प्रभाव से पहले की परम्परा है। गिरनार के शिलालेख में 'तिष्ठति' के प्राकृत रूप '
तिति' के स्थान पर उसका स्थानीय रूप 'तिस्टति' ही मिलता है। यह उस बोली की प्रबल प्रवृत्ति का द्योतक है । मारवाड़ी में आज भी स्पष्ट और कष्ट के मूर्द्धन्य ष् के स्थान पर दन्त्य स् की सीत्कार ध्वनि बड़ी साफ सुन पड़ती है ।
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३७-उदीच्य प्राकृत में तीन मुख्य विशेषताए थीं
(क) ईरानी के समान इसमें 'र' ध्वनि की प्रधानता थी और 'ल' ध्वनि का प्रयोग नहीं होता था। (ख) महाप्राण 'घ', 'ध', 'भ' के अल्पप्रारणत्व का लोप और केवल 'ह-कार' का प्रयोग । (ग) मध्यग 'ड' (ड), 'ढ' (ढ़), क्रम से 'ल' और 'लह' हो जाते थे।
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