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श्री उदयसिंह भटनागर
(३) ज्ञ और न्य् का उच्चारण ञ के समान कतंजता
--सं० कृतज्ञता मायासु
--सं० न्यायासिषुः अनानि
-- सं० अन्यानि (४) लम्वे संयुक्ताक्षरों वाले शब्दों में अक्षरलोपः कसंति, कासंति करिष्यन्ति
इस प्रकार मारवाड़ी को रचना की आधार भूमि में पश्चिमी प्रभाव ही प्रबल है । मध्यदेशीय प्राकृत का प्रभाव तो मारवाड़ी पर बहुत काल पीछे पाया४० । पश्चिम पंजाब, सिन्ध, गुजरात और मारवाड़ के निवासी अधिकतर द्रविड अनार्य थे। धीरे-धीरे ये आर्य भाषा और आर्य सत्ता को स्वीकार करते रहे थे। ये लोग जब आर्य भाषा का प्रयोग करने लगे तो उनकी भाषा-प्रवृत्तियाँ इस मिश्रित प्रार्य भाषा में प्रा गई। आगे चलकर इसी ने पश्चिमी राजस्थानी की पृष्ठभूमि तैयार की।
दक्षिण राजस्थान में मेवाड़ के एक बड़े भाग पर भीलों का आधिपत्य था ।यही कारण है कि इस भाग की बोली की कई प्रवृत्तियाँ मारवाड़ी से मेल नहीं खाती। इस ओर के लोग भील, आभीर, गूजर आदि थे, जिन पर आर्य भाषा का प्रभाव मालवा की ओर से होकर आया। इसी कारण मेवाड़ी और मालवी में समानता होती है। शौरसेन से आने वाले पार्य प्रभाव ने पूर्व राजस्थानी और मालवा की ओर से पाने वाले प्राकृत प्रभाव ने दक्षिण राजस्थानी की आधार भूमि प्रस्तुत की।
प्रार्य प्रसार के पश्चात् प्राकृत के प्रभाव से राजस्थानी की पृष्ठभूमि प्रारम्भ होने लगी। आर्य प्रभुत्व और प्रसार के कारण यद्यपि द्रविड़ दक्षिण की ओर उतर गये परन्तु उनमें से अनेक यहां भी बस रहे। इनके अनिश्चित अन्य अनेक जातियां जो सिन्धु तथा उत्तर पंजाब से खदेड़ी गई वे भी राजस्थान में बस गई। इन सब की बोलियों में प्रार्य भाषा के मिश्रण ने एक नवीन भाषा की रचना में योग दिया, जिससे राजस्थानी की पृष्ठभूमि प्रारम्भ होने लगी। प्राकृत की सावर्ण्य (Assimilation) ने आर्य भाषा और अनार्य शब्दों से राजस्थानी रूपान्तर करने में प्रधान रूप से काम किया। भील-द्रविड़ राज्यों की संस्कृति के अवशेष चारण-भाटों (देखों ऊपर द्रविड़ पुल्वन,-राज० पडवो, बड़वो आदि) ने अपनी भाषा की रचना में इस प्रवृत्ति को नियमित रूप से अपनाया और आगे चलकर राजस्थानी में द्वित वर्णवाली डिंगल शैली का विकास किया।
प्राकृत के लोक भाषा होने से उसका क्षेत्र व्यापक हो गया था। अनेक अनार्य जातियां इस आर्य भाषा का प्रयोग अपनी बोलियों का मिश्रण करके करती जा रही थीं। राजस्थान की अनेक उद्योग व्यवसायो जातियां पार्यों के साथ सम्पर्क स्थापित कर चुकी थी। वे अपने उद्योग-व्यवसाय को लेकर आर्य परिवारों में प्रवेश करने लगी थीं। इन सभी जातियों के सम्पर्क, सम्बन्ध और मिश्रण तथा संयोग-व्यवहार से विकसित
४०-"मारवाड़-गुजरात की मौलिक या प्राथमिक बोली, जिसका प्राचीनतम निदर्शन प्रशोक की गिरनार लिपि
में हमें मिलता है, मध्यदेश (शूरसेन अथवा अन्तर्वेद) की भाषा से नहीं निकली थी; पश्चिमी-पंजाब तथा सिन्ध में जो आर्य बोलियां स्थापित हई थीं, उनसे ज्यादा सम्पकित थी" । सु० कु. चा०-'राजस्थानी भाषा'-पृ० ५५ ।
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