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गुजरात में रचित कतिपय दिगम्बर जैन ग्रन्थ
धरणिवराह का शासन था और वह प्रतिहारों का सामन्त था। वढवाण के राज्यकर्ताओं के इन वराहान्त नामों से एक स्वाभाविक अनुमान किया जा सकता है कि 'हरिवंशपुराण' की प्रशस्ति में जिसका उल्लेख है वह राजा जयवराह उपर्युक्त धरणिवराह का चार-पांच पीढ़ी पूर्व का पूर्वज होगा। यह तो स्पष्ट है कि ये राजवी चाप अर्थात् चावडा वंश के थे। तदुपरान्त 'हरिवंश' कार जिनसेन ने अपनी रचना गिरनार पर की। सिंहवाहनी शासनदेवी का जो उल्लेख किया है इससे ज्ञात होता है कि ईशु के आठवें शतक तक के पुराने काल में गिरनार पर नेमिनाथ की शासनदेवी अम्बिका का मन्दिर विद्यमान था ।
हरिषेण के 'बृहत्कथाकोश' की रचना इस 'हरिवंशपुराण' से डेढ़ शतक के बाद हुई । साढ़े बारह हजार श्लोकप्रमाण के इस ग्रन्थ में विविध-विषयक १५७ जैन धर्म-कथाएं दी गई हैं । उसके कर्ता ने अपना परिचय मौनि भट्टारक के शिष्य के रूप में दिया है। वह कहता है कि जैन मन्दिरों से संकीर्ण चन्द्र जैसी शुभ्र क्रान्ति से युक्त हम्र्यों से समर और सुवर्णसमृद्ध जनों से व्याप्त वर्धमानपुर में इस कृति की रचना की गई थी। उन दिनों वहाँ इन्द्रतुल्य विनायकपाल नामक राजा का शासन चल रहा था। यह विनायकपाल भी कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार वंश का ही राजा था। विद्वानों के मत से विनायकहाल, क्षितिपाल, हेरम्बपाल आदि नाम इस वंश के सुप्रसिद्ध सम्राट् महीपाल के ही हैं (दखिये-कन्हैयालाल मुन्शी: ग्लोरी इट वोझ गुर्जरदेश' ग्रन्थ ३, पृ० १०५ तथा १०५-६) । बृहत्कथाकोश के अन्त में उसके रचना समय के बारे में कर्ता ने जो तफसीलें दी हैं उनसे यह खयाल आता है कि ज्यौतिष की गणना के अनुसार यह ग्रन्थ ५ वीं अक्टूबर, ६३१ से १३ वीं, मार्च १३२ के दरम्यान किसी समय लिखा गया है (देखिये, 'बृहत्कथाकोश' को डॉ० उपाध्ये की प्रस्तावना, पृ० १२१), और इसमें राज्यकर्ता के तौर पर विनायकपाल का उल्लेख किया गया है। दूसरी प्रोर, राजा महीपाल का एक दानपत्र ई० सं० ६३१ का प्राप्त हुआ है जिससे प्रतीत होता है कि विनायकपाल और महीपाल ये एक ही नृपति के दो नाम हैं।
जिनसेन एवं हरिषेण दोनों 'पुन्नाट संघ' के साधु थे। हरिषेण ने अपने गुरु मौनि भट्टारक को 'पुन्नाटसंघाम्बरसंनिवासी' कह कर वर्णित किये हैं और जिनसेन ने स्वगुरु कीत्तिषेण के गुरुबन्धु अमितसेन को 'पवित्रपुन्नाटगणाग्रणीर्गणी' के रूप में आलिखित किये हैं; अर्थात् पुन्नाटसंघ दिगम्बर जैन साधुओं का एक समुदाय था । पुन्नाट देश के नांव से वह पुन्नाट कहलाया । खुद हरिषेण ने ही दो कथाओं में जो निर्देश किया है उसके अनुसार पुन्नाट देश दक्षिणापथ में स्थित था।
अनेन सह सङ्घोऽपि समस्तो गुरुवाक्यत: । दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं ययौ ॥
(कथा १३१, श्लोक ४०)
१--वनराज चावडा ने ई० स० ७४६ में अणहिलवाड पाटण बसाया । उसके पूर्व प्राचीन गुर्जर देश में
चावडामों के कम से कम तीन राज्य थे---श्रीमाल में, वढवाण में और पंच सर में। ई०स०६२८ में भिल्लमाल अथवा श्रीमाल में 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' नामक ज्योतिष के ग्रन्थ के रचयिता प्राचार्य ब्रह्मगप्त कहते हैं कि चापवंश के तिलकरूप व्याघ्रमुख राजा जब वहाँ राज्य करता था तब यह ग्रन्थ उन्होंने लिखा । वढवाण के चापवंश का निर्देश ऊपर किया गया है। वनराज का पिता जयशिखरी और उसके पूर्वज पंचासर के शासक थे।
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