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गुजरात में रचित कतिपय दिगम्बर जैन-ग्रन्थ
पन्द्रह शताब्दियों से भी अधिक समय से गुजरात और राजस्थान जैन धर्म के केन्द्र रहे हैं । यहां जैनों में सबसे अधिक बस्ती श्वेताम्बरों की है। समस्त श्वेताम्बर आगम ईशु की पांचवी शताब्दी में सौराष्ट्र के बलभीपुर में एक साथ लिपिबद्ध किया गया था। आगमों की बहुतेरी टीकाएं' इसी प्रदेश में लिखी गई हैं। इतना ही नहीं लेकिन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं प्राचीन गुजराती-राजस्थानी के ललित तथा शास्त्रीय वाङमय के सभी प्रथों के निरूपक जैन श्वेताम्बर साहित्य का जितना विकास गत प्रायः एक हजार वर्षों में इस प्रदेश में हुअा उतना भारत में और कहीं भी नहीं हुआ है। यद्यपि आज गुजरात में दिगम्बर जैनों की जनसंख्या प्रमाण में अल्प है, तथापि एक समय में उनकी संख्या बहुत रही होगी। अभी तो उनकी साहित्य प्रवृत्ति के थोड़े ही अवशेष बचे हुए हैं, इतने प्राचीन एवं विरल हैं कि गुजरात के समग्र जैन साहित्य के इतिहास की दृष्टि से वे अति महत्त्वपूर्ण हैं ।
प्राचार्य जिनसेनकृत 'हरिवंशपुराण' तथा प्राचार्य हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोश' ये दो संस्कृत ग्रंथ दिगम्बर साहित्य की प्राचीनतम उपलब्ध रचनाओं में से हैं। ये दोनों कृतियां 'वर्षमानपुर' अर्थात् सौराष्ट्र में पाये हये वढ़वाण में लिखी गई हैं 'हरिवंशपुराण' की रचना शक सं.७०५ (वि. सं.८३६ - ई. सन् ७८३) में हई और 'वृहत्कथाकोश' की रचना वि. सं. १८६ अर्थात शक सं. ८५३ (-ई. सन् ६३१-३२) में-- ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से जब खर नामक संवत्सर प्रवर्तमान था, तब हुई। जिनसेन ने रचनावर्ष शक संवत में बताया है और हरिषेण ने विक्रम एवं शक दोनों में ।
दिगम्बर सम्प्रदाय के उपलब्ध कथासाहित्य में कालानुक्रम की दृष्टि से 'हरिवंशपुराण' तृतीय ग्रन्थ है, इस हकीकत से उसके महत्व का खयाल सहज ही आएगा; उससे पूर्व के दो ग्रन्थ हैं प्राचार्य रविषेण का 'पद्मचरित' और जटा-सिंहनंदि का 'वरांगचरित' । इन दोनों का उल्लेख 'हरिवंशपुराण' के पहले सर्ग में ही किया गया है।
'हरिवंशपुराण' बारह हजार श्लोक प्रमाण का ६६ सर्गों में विभाजित वृहद् ग्रन्थ है । बाइसवे तीर्थंकर नेमिनाथ जिस वंश में उत्पन्न हये थे उस वंश का अथित् हरिवंश का वृत्तान्त इसका वर्ण्य विषय है। इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में जिनसेन ने कहा है कि सौरों के अधिमण्डल अर्थात् सौराष्ट्र पर जब जयवहराह नामक राजा का शासन था, तब कल्याण से जिसकी विपुल श्री वर्धमान होती है ऐसे वर्षमान-नगर में पार्वनाथमन्दिरयुक्त नन्नराजवसति में इस ग्रन्थ की रचना हई। प्रशस्ति में और भी कथन है कि दोस्तटिका नामक स्थान में तीर्थंकर शान्तिनाथ के मन्दिर में प्रजा ने इस ग्रन्थ का पूजन किया। इस दोस्तटिका के स्थान के बारे में अभी कोई निर्णय नहीं किया जा सकता, फिर भी वह बढ़बारण का समीपवर्ती होगा यह तो निश्चित हे ई. सन् वढबाण के राजा जयवराह के बारे में विशेष माहिती इस प्रशस्ति में से प्राप्त नहीं होती है । तथापि कन्नौज के प्रतिहार राजा महीपाल का शक सं० ८३६ (ई० सन् ६१४) का जो एक ताम्रपत्र सौराष्ट्र के डाला गांव में से मिला है उससे ज्ञात होता है कि उन दिनों वढबाण में चाप वंश के राजा
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