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डॉ० भोगीलाल जयचन्द भाई मांडेसरा
पुन्नाट विषये रम्ये दक्षिणापथगोचरे । तलाटवीपुराभिख्यं बभूव परमं पुरम् ।
(कथा १४५, श्लोक ६) दक्षिणापथ में भी पुन्नाट कर्णाटक का एक भाग था। अद्यपर्यन्त इसके बारे में जो बहस हई है (देखिये 'इंडियन कल्चर', ग्रन्थ ३, पृ. ३०३-१, पर ए० बी० सालेटोर का 'एन्शेयन्ट किंगडम ऑफ पून्नाट', नामक लेख तथा 'कारणे अभिनन्दन ग्रन्थ' में एम्० जी० पाई का 'रूलर्स ऑफ पुन्नाट' नामक लेख), उसके अनुसार कावेरी और कपिनी नदियों के बीच का प्रदेश-जिसका मुख्य शहर कीत्तिपुर (अथवा किट्टर) थावही प्राचीन पुन्नाट प्रदेश है । यह स्पष्ट ही है कि 'पुन्नाट संघ' का नाम इस प्रदेश के नाम पर से ही रक्खा गया है । कर्णाटक दिगम्बर जैनों का केन्द्रस्थान था और आज भी है, लेकिन वहां के प्राचीन साहित्य में या लेखों में कहीं भी 'पुन्नाट संघ' का उल्लेख नहीं मिलता । कभी कभी किट्टर संघ' का उल्लेख प्राप्त होता है जिसका नाम पुन्नाट प्रदेश के पाटनगर किट्टर पर से रक्खा गया है और इसी से शायद 'पुन्नाट संघ' विवक्षित हो सकता है। किन्तु यह तो निश्चित है कि विक्रम के नववें शतक के पूर्व ही कर्णाटक-अन्तर्गत पुन्नाट का एक दिगम्बर साधु समुदाय सौराष्ट्र में आकर विशेषतः वढवाण के नजदीक के प्रदेश में स्थिर हुया था और अपने मूलस्थान के नाम से 'पुन्नाट संघ' नाम से प्रख्यात हया था । 'बृहत्कथाकोश' की अनेक कथानों में दक्षिणापथ के नगरों का जो उल्लेख मिलता है वह भी इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। मध्यकालीन गुजरात का जैन साहित्य-विशेषतः प्रबन्ध साहित्य यह स्पष्टतया दिखलाता है कि उस समय में गुजरात में इसके अलावा दूसरे भी दिगम्बर साधू-समुदाय थे तथा दिगम्बर और श्वेताम्बरों के बीच अनेक विषयों में तीव्र स्पर्धा प्रवर्तमान थी । राजा सिद्धराज जयसिंह (ई. स. १०९४-११४३) के दरबार में श्वेताम्बर प्राचार्य वादी देवसूरी और दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र के बीच जो प्रसिद्ध विवाद हया जिस आखिर कुमुन्दचन्द्र की पराजय हुई उसका निरूपण यशश्चन्द्ररचित समकालीन संस्कृत नाटक 'मूद्रितकूमदचन्द्रप्रकरण' में किया गया है तथा इस घटना का चित्रण प्राचार्य जिनविजयजी के द्वारा प्रकाशित चन्द समकालीन चित्रों में भी मिलता है।
कर्णाटकविनिर्गत दिगम्बर साधु समुदाय सौराष्ट्र में स्थित हुअा यह हकीकत गुजरात एवं कर्णाटक के सांस्कारिक सम्पर्क की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह समग्र विषय एक अलग अध्ययन का पात्र है। यह तो अब निश्चित हुआ है कि उन दिनों वढवाण पश्चिम भारत के दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का एक महाकेन्द्र था । दिगम्बर साहित्य के दो सबसे प्रसिद्ध प्राचीन ग्रन्थ क्रमानुसार ठीक आठवीं और दशवीं शताब्दी में वढवाण में ही लिखे गये, तथा इसी नगर में रचित श्वेताम्बर साहित्य के प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ जालिहरगच्छ के प्राचार्य देवसूरिकृत प्राकृत 'पद्मप्रभचरित' का रचनावर्ष सं० १२५४ (इ. स. ११९८) है।
गुजरात की भूमि में ही हए, इसके बाद के समय के, दो दिगम्बर कवियों के बारे में अब मैं कुछ कहूँगा । ये दो कवि हैं जसकित्ति या यशःकीत्ति और अमरकीति, जिन दोनों की कृतियाँ अपभ्रंश भाषा में लिखी हुई मिली हैं।
यशःकीति की दो अपभ्रश रचनाएं विदित हुई हैं। इनमें से एक 'पाण्डवपुराण' है, जिसमें जैन महाभारत की कथा अपभ्रंश पद्य में दी गई है। यह कृति वि० सं० ११७६ (ई. स. ११२३) में विल्हसुत
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