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પૂજ્ય ગુરૂદેવ વિવ` પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ
अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा शरीर को ही आत्मा समझता है और शरीर के नष्ट होते पर अपने को नष्ट हुआ समझता है । वह ऐन्द्रिय सुख को ही सुख मानता है । अन्तरात्मा अपनी आत्मा को अपने शरीर से भिन्न समझता है । उसकी सांसारिक पदार्थों में रुचि नहीं होती । परमात्मा वह है जिसने समस्त कर्म बंधनों को नष्ट कर जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छुटकारा पा लिया है।
सुविधा की दृष्टि से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा से सम्बध्द स्वातन्त्र्य भाव को हम तीन प्रकार से समझ
सकते हैं।
( १ ) हिरात्मा की स्वतन्त्रता एक प्रकार से इच्छा पूर्ति करने की क्षमता धारण करने वाली स्वतन्त्रता है क्योंकि यह क्षमता सभी जीवों में न्यूनाधिक मात्रा में निहित होती है। भौतिक आकांक्षाओं को पूर्ति सभी जोव करते ही हैं। यह स्वतंत्रता राजनैतिक शासन प्रणाली, सामाजिक संगठन और परिस्थितियों के आश्रित होती है । स्वतन्त्रता का यह बोध बहुत ही स्थूल है और देशकालत नियमों और भावनाओं से बंधा रहता है ।
(२) अन्तरात्मा की स्वतंत्रता एक प्रकार से आत्म पूर्णता की क्षमता धारण करने की स्वतंत्रता है । इसे हम आत्मसाक्षा कार करने की स्वतंत्रता अथवा आदर्श जीवन जीने की स्वतंत्रता भी कह सकते हैं । यह स्वतंत्रता अर्जित स्वतंत्रता है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के सम्यक् परिपालन से सम्पादित की जा सकती है । सम्यक् दृष्टि सम्पन्न सद्गृहस्थ अर्थात् व्रती श्रावक, मुनि, आदि इस प्रकार की स्वातन्त्र्य भावना के भावक होते हैं ।
(३) परमात्मा की स्वतन्त्रता जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये मुक्त होकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुखऔर अनन्त बल के प्रकटीकरण की स्वतंत्रता हैं । यह स्वतंत्रता जीवन का सर्वोच्च मूल्य हैं जिसे पाकर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। तीर्थंकर, अर्हत्त, केवली, सिद्ध आदि परमात्मा इस श्रेणी में आते हैं।
जैन दर्शन में परमात्मा की स्वतंत्रता ही वास्तविक और पूर्ण स्वतन्त्रता मानी गई हैं।
जीव या आत्मा का लक्षण उपयोग अर्थात् चेतना माना गया हैं । संसारी जीव अपने अपने कर्मांनुसार सुख-दुःख का अनुभव करता है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव जब राग-द्वेष युक्त मन, वचन, काया की प्रवृत्ति करता है तब आत्मा में एक स्पन्दन होता है उससे वह सूक्ष्म पुदगल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकार के आभ्यन्तर संस्कारों को उत्पन्न करता है । आत्मा में चुम्बक की तरह अन्य पुद्गल परमाणुओं को अपनी ओर आकर्षित करने की तथा उन परमाणुओं में लोहे की तरह आकर्षित होने की शक्ति है । यद्यपि ये पुद्गल परमाणु भौतिक हैं, अजीव हैं तथापि जीव की राग-द्वेषात्मक मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रिया के द्वारा आकृष्ट होकर वे आत्मा के साथ ऐसे घुल मिल जाते हैं जैसे दूध और पानी । अग्नि और लौहपिण्ड की भांति वे परस्पर एकमेक हो जाते हैं । जीव के द्वारा कृत (किया) होने से ये कर्म कहे जाते हैं ।
जैन कर्म शास्त्र में कर्म की आठ मूल प्रकृतियां मानी गई हैं । ये प्रकृतियाँ प्राणी को भिन्न भिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। इन आठ प्रकृतियों के नाम है - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाती प्रकृतियां हैं क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। इन घाती कर्मों को नष्ट किये बिना आत्मा सर्वज्ञ और केवली नहीं बन सकती, आत्म साक्षात्कार नहीं कर सकती । शेष चार प्रकृतियां अघाती हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं । उनका प्रभाव केवल शरीर, इन्द्रिय, आयु आदि पर पड़ता है। इन सभी कर्मों से मुक्त होना ही वास्तविक व पूर्ण स्वतन्त्रता है ।
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आज हम स्वतन्त्रता का जो अर्थ लेते हैं वह सामान्यतः राजनैतिक स्वाधीनता से है । यदि व्यक्ति को अपनी शासन-प्रणाली और शासनाधिकारी के चयन का अधिकार है तो वह स्वतन्त्र माना जाता है, पर जैन दर्शन में स्वतन्त्रता का यह स्थूल अयं ही नहीं लिया गया, उसकी स्वतन्त्रता का अर्थ बहुत सूक्ष्म और गहरा है । समस्त विषय विकारों से, राग-द्वेष से, कर्मबन्ध से मुक्त होता ही उसको दृष्टि में वास्तविक स्वतन्त्रता है। भगवान महावीर ने अन्तर्मुखी होकर साढ़ा बारह वर्ष की कठोर साधना कर, यह चिन्तन दिया कि व्यक्ति अपने कर्म और पुरुषार्थ में स्वतन्त्र है । उन्होंने कहा- यह आत्मा न तो किसी
. जैन दर्शन में स्वातन्त्र्य बोध
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