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________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ ફવિલય પં. નાનાસજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ जैन दर्शन में स्वातन्त्र्य बोध -डा० नरेन्द्र भानावत M.A. P. H.D. दार्शनिकों, राजनीतिज्ञों और समाजशास्त्रियों में स्वतन्त्रता का अर्थ भिन्न भिन्न दृष्टिकोणों से गृहीत हुआ है। यहां दो परिभाषाएं देना पर्याप्त है। मोर्टिगर जे. एडलर के अनुसार यदि किसी व्यक्ति में ऐसी क्षमता अथवा शक्ति है, जिससे वह अपने किये गये कार्य को अपना स्वयं का कार्य बना सके तथा जो प्राप्त करे उसे अपनी सम्पत्ति के रूप में अपना सके तो वह व्यक्ति स्वतन्त्र कहलायेगा।' इस परिभाषा में स्वतन्त्रता के दो आवश्यक घटक बताये गये हैं- कार्यक्षमता और अपेक्षित को उपलब्ध करने की शक्ति। अस्तित्ववादी विचारक 'ज्यां पाल सार्व' के शब्दों में स्वतन्त्रता मूलतः मानवीय स्वभाव है और मनुष्य की परिभाषा के रूप में दूसरों पर आश्रित नहीं है। किन्तु जैसे ही मैं कार्यमें गूंथता हूं मैं अपनी स्वतन्त्रता की कामना करने के साथ साथ दूसरों की स्वतन्त्रता का सामना करने के लिये प्रतिश्रुत हूं। ३ इस परिभाषा के दो मुख्य बिन्दु हैं-आत्म निर्भरता और दूसरों के अस्तित्व व स्वतन्त्रता की स्वीकृति ।। कहना न होगा कि उक्त दोनों परिभाषाओं के आवश्यक तत्त्व जैनदर्शन की स्वतन्त्रता विषयक अवधारणा में निहित है। ये तत्त्व उसी अवस्थामें मान्य हो सकते हैं जब मनुष्य को ही अपने सुख-दुख का कर्ता अथवा भाग्य का नियंता स्वीकार किया जाये और ईश्वर को सृष्टि के कर्ता, भर्ता और हर्ता के रूप में स्वीकृति न दी जाय। जैनदर्शन में ईश्वर को सृष्टिकर्ता और सृष्टि नियामक के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। इस दृष्टि से जैनदर्शन का स्वातन्त्र्य बोध आधुनिक चिन्तना के अधिक निकट है। जैन मान्यता के अनुसार जगत में जड़ और चेतन दो पदार्थ हैं। सृष्टि का विकास इन्हीं पर आधारित है। जड़ और चेतन में अनेक कारणों से विविध प्रकार के रूपान्तर होते रहते हैं । इसे पर्याय कहा गया हैं। पर्याय की दृष्टि से वस्तुओं का उत्पाद और विनाश अवश्य होता है परन्तु इसके लिए देव, ब्रह्म, ईश्वर आदि की कोई आवश्यकता नहीं होती। अतएव जगत का न तो कभी सर्जन ही होता है न प्रलय ही। वह अनादि, अनन्त और शाश्वत है। प्राणिशास्त्र के विशेषज्ञ 'श्री जै. बी. एस. हाल्डेन का' मत है कि “मेरे विचार में जगत् की कोई आदि नहीं है। सृष्टि विषयक यह सिद्धान्त अकाट्य है और विज्ञान का चरम विकास भी कभी इसका विरोध नहीं कर सकता। पर स्मरणीय है कि गुण कभी नष्ट नहीं होते और न अपने को बदलते हैं। वे पर्यायों के द्वारा अवस्था से अवस्थान्तर होते हुए सदैव स्थिर बने रहते हैं। इस दृष्टि से जैनदर्शन में चेतन के साथ साथ जड़ पदाथों की स्वतन्त्रता भी मान्य की गई है। जैनदर्शन के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतंत्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिये न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है जिसका अभिप्राय है जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। वही अपना शत्रु है और वही अपना मित्र। बंधन और मुक्ति उसी के आश्रित है। जैन दर्शन में जीवों का वर्गीकरण दो दृष्टिकोण से किया गया है - सांसारिक और आध्यात्मिक । सांसारिक दृष्टिकोण से जीवों का वर्गीकरण इन्द्रियों को अपेक्षा से किया गया है। सबसे निम्न चेतना स्तर पर एक इन्द्रिय जोव है जिसके केवल एक स्पर्शेन्द्रिय ही होती है। वनस्पति वर्ग इसका उदाहरण है। इनमें चेना सबसे कम विकसित होती है। इनसे उच्चस्तर चेतना के जीवों में क्रमशः रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रियों का विकास होता है। मनुष्य इनमें सर्व श्रेष्ठ माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीव तीन प्रकार के माने गये हैं। बहिरात्मा, १- द आइडिया आफ फ्रीडम पृ. ५८६ २- Existentalism पृ. ५४ तत्त्वदर्शन www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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