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________________ - - 'પચ ગદેવ ફવિવય પં. નાનયતજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ जैन दार्शनिकों ने प्रकृति और ऊर्जाको पुद्गल पर्याय माना है। विज्ञान यही मानता है की, छाया, तम शब्द आदि य हैं । अंधकार और प्रकाश का लक्षण अभावात्मक न मानकर दृष्टि देश, प्रतिबंधकारक और विरोधी माना है। आधुनिक विज्ञान भी प्रकाशके अभाव रुप को अंधकार नहीं मानता । अंधकार पुद्गल की पर्याय है। प्रकाश पुद्गल से पृथक उसका अस्तित्व है। छाया पुद्गल की ही एक पर्याय है। प्रकाश का निमित्त पाकर छाया होती है। प्रकाश को आतप और उद्योत के रुपमें दो भागोंमें विभक्त किया है। सूर्यका चमचमाता उष्ण प्रकाश " आता" है। और वंद्रमा, जुगनू आदि का शीत प्रकाश "उद्योत" है। शब्द भी पौद्गलिक है। हम को जितने भी पदार्थ नेत्रोंसे दिखते हैं, स्पर्श होते हैं, चखनेमें आते हैं और सुनाई देते हैं, वे सब पुदगल पदार्थ है। शुद्ध पुद्गल परमाणु तो अतिसूक्ष्म होने मे इन्द्रियगोचर होता ही है। परंतु पुद्गल स्कन्धों में भी बहुत स्कन्ध ऐसे सूक्ष्म होते हैं जो नेत्र और इंन्द्रियद्वारा जानने में नहीं आते और बहुतपे स्कन्ध स्थूल होते हैं जो कि इंद्रियसे जाने जाते हैं। उन इंद्रियगोचर स्कन्धोमें भी दो प्रकार है। १) कुछ स्कन्ध अन्न, फल आदि तो ऐसे हैं, जो जोभ, नेत्र, नाक, कान और स्पर्श उन पांचो इंद्रियो द्वारा छुने, चखने, सुंधनें, सुनने और दिखने में आते हैं। २) परन्तु वायु आदि ऐसे स्कन्ध होते हैं जो दिखाई नहीं देते परन्तु छुनेमें आते है। शब्दरुप पुद्गलस्कन्ध ऐसे होते हैं, जो सुनने में आते हैं, जिनका स्पर्श, रुप इंद्रियो पर आघात होता है परंतु आँखों से दिखाई नहीं देते। प्रकाश और अंधकाररुप पुद्गलस्कन्ध आँखों से दिखाई देते हैं परन्तु नाक, कान, जीभ इत्यादि इन्द्रियद्वारा नहीं जाने जाते। धूप और चांदतोष परिणत होने वाले पुद्गल स्कन्ध, शीत, गर्भ रुपसे छूने में तया देखने में आते हैं परन्तु उनको पकडकर व तो स्थानांतर किया जा सकता है और न अन्य इंद्रियों उनको जान सकती है। इस तरह पुद्गल द्रब्य अनेक प्रकारका है। पुद्गल द्रव्य के विविध प्रकारके परिणमन विविध प्रकारके निमित्त कारगो द्वारा हुआ करते हैं। ऑक्सिजन और हायड्रोजन गैसों के मिल जानेसे पानी बन जाता है। पानी को अति ठंडी वायुका या अमोनिया गेस का निमित्त मिल जानेसे बर्फ बन जाता है। अग्नि की तथा सूर्य किरणोंकी गर्मी के निमित्तसे पानी भाप बन जाता है। भापसे बादल बन जाते है । पार्थिव लकडी तथा सोना, चाँदी, लोह आदि पार्थिव धातुएँ अग्निके निमित्तसे जलकर राख हो जाती है। समस्त धातुएँ पिघलकर अन्य आकार प्रकारोमें परिगत होती हैं। इसमें भी अग्नि निमित कारण होती है। इस तरह पुद्गल द्रव्यके विविध प्रकारके परिणमन में विविध प्रकारके निमित्त कारण सहायक होते हैं। "कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण" शरीर, वाणी, मन, निःश्वास, उच्छवास, सुख, दुख, जीवन, मरण यह पुद्गलके उपहार कार्य हैं। उमास्वातिने 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्र में यही बात कही है। 'शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ।। १९ । 'सुख दुःख जीवित मरणोपग्रहाश्च ।' २० । अ. ५ सू. १९।२० आँखों से जो जो दिखता है वह सब पुद्गल द्रव्य है। पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि, वनस्पति इत्यादि का शरीर, भोगोपभोगो के सब साधन पुद्गल के बने हैं । कहने का मतलब इंद्रिय ग्राह्य जितने भी पदार्थ हैं वे सब वर्ण, गंव, रस, स्पर्शयुक्त होने से मूर्त हैं, रुपी हैं। पौगिलक है। लोकाकाशके जितने भाग को एक परमाणु अवगाहित करता है उतने भाग को 'प्रदेश' कहा जाता है। किन्तु पुद्गल की स्वाभाविक अवगाहन-पंकोच-शक्ति के कारण लोकाकाश के एक प्रदेश में 'अन्त-प्रदेशों' (अनन्त परमाणुओंसे बना हुआ) स्कन्ध ठहर सकता है। समग्र लोकाकाशमें (जो कि असंख्यात प्रदेशात्मक है) अनंतानंत प्रदेशो स्कन्ध विद्यमान हैं। इस प्रकार द्रव्य संख्या की दृष्टिसे पुद्गल द्रव्य अनंत हैं, क्षेत्र की दृष्टिसे स्वतंत्र परमाणु एक प्रदेशका अवगाहन करता है और स्वतंत्र स्कन्ध एक से लेकर असंख्यात प्रदेशोंका अवगाहन करता है तथा समग्र पुद्गल द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त है। काल की दृष्टिसे अनादि अनंत है । स्वरुप की दृष्टिसे वर्ण-स्पर्श आदि गुणोंसे युक्त मूर्त है। पुद्गल के बीस गुण है। स्पर्श-शीत, उष्ण, रुक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कर्कश । ३६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only तत्त्वदर्शन www.jainelibrary.org
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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