SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 667
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'પજ્યગદેવ કવિવય પં. નાનઅદ્રજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથર इसके बाद आत्मशुद्धि और वीर्योल्लास की मात्रा अधिक बढ़ती है तब आत्मा दशनमोह पर अवश्य विजय लाभ करता है। इस विजयकारक आत्मशुद्धि को अनिवृत्तिकरण कहा जाता है। क्योंकि इस शुद्धि को प्राप्त करने पर आत्मा दर्शन मोह को हराये बिना नहीं रहता। वह दर्शनमोह को हराकर उस पर विजय प्राप्त कर लेता है। यह विजय प्राप्त होते ही आत्मा मिथ्यात्व के प्रथम गुणस्थान से निकल कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। यह स्थिति प्राप्त होते ही आत्मा के प्रयासों की दिशा बदल जाती है। आत्मा अपने स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर लेता है। बहिदृष्टि हट कर अन्तर्दृष्टि जागृत हो जाती है। यह अन्तरात्मभाव आत्म-मन्दिर का गर्भद्वार है जिसमें प्रविष्ट होकर परमात्मभाव रूप देव का दर्शन किया जाता है। इस भूमिका में आते ही आत्मा आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करता है। यह विकासक्रमको चतुर्थ भूमिका अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान कहा जाता है। २ सास्वादन गुणस्थान संसारवर्ती आत्मा की स्थिति कभी एक सी नहीं रहती। उसके अध्यवसाय वदलते रहते हैं। कभी आत्मा उत्क्रान्ति के पथ पर अग्रसर होता है तो कभी उस पथ से भ्रष्ट होकर वह अपक्रान्ति करता हुआ नीचे लुढ़क पड़ता है। सम्य कत्व के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई आत्मा मिथ्यादृष्टि वाली प्रथम भूमिका की ओर झूकता है तव बीच में पतनोन्मुखी आत्मा की जो कुछ अवस्था होती है वही सास्वादन गणस्थान नामक दूसरा गणस्थान है। जिस प्रकार खीर खाकर कोई व्यक्ति वमन कर देता है तब उसके मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद होता है। न वह मधुर होता हैं न आम्ल। इसी तरह दूसरे गुणस्थान के समय आत्मा न तो तत्त्वज्ञान की निश्चित भूमिका पर होता है और न तत्त्वज्ञान की शुभ स्थिति पर ही। अथवा सिढ़ियों से खिसकता हुआ व्यक्ति जब तक जमीन पर नहीं आ जाता तब तक बीच में जो अवस्था होती है वैसी ही अवस्था इसमें होती है। सम्यक्त्व से गिरता हुआ व्यक्ति जबतक मिथ्यात्व में नहीं आ जाता, उस बीच की स्थिति में जो अध्यवसाय होते हैं या जो आत्मिक स्थिति होती है वही सास्वादन गुणस्थान समझना चाहिए। ३ मिश्र गुणस्थान जब आत्मा न तो सम्यग्दृष्टि होता है और न मिथ्यादष्टि किन्तु मिश्र स्थिति वाला होता है तब वह मिश्रगुणस्थान वाला कहा जाता है। एसा आत्मा तत्व को न तो एकान्त अतत्त्व समझता है और न तत्त्व अतत्त्व का विवेक ही कर पाता है। कांच और रत्न का भेद-ज्ञान करने में असमर्थ होने से वह दोनों को समान समझता है। इस गुणस्थानमें दोनों प्रकार के आत्मा आते हैं। उत्क्रान्ति करने बाला आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकल कर इसमें आ ता है। अपक्रान्ति करने वाला आत्मा चौथे आदि गुणस्थानों से गिरकर भी इस गुणस्थान में आता है। दोनों प्रकार के आत्माओं का आश्रय तीसरा गुणस्थान है। ४ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्रथम गुणस्थान के वर्णन में कहा जा चुका है कि जब आत्मा दर्शनमोह को जीतने में सफल हो जाता है तो वह मिथ्यादृष्टि मिटकर सम्यग्दृष्टि बन जाता है। उसकी दृष्टि बदल जाती है। पहले वह भौतिक पदार्थों और ऐन्द्रियक विषयों के प्रति तीव्र आसक्तिभाव रखता था परन्तु अब वह उनके प्रति उदासीन रहता है। वह समझ लेता है कि ये पदार्थ नाशवान् है और असार है । इनसे मुझे सुख-शान्ति मिलने वाली नहीं है। वास्तविक आनन्द का निधान तो आत्मा ही है। इसी से आ नन्दकी प्राप्ति होगी। इस तरह वह बहिर्दष्टि से अन्तर्दष्टि वाला बन जाता है। यह अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है, आत्मविकास की चतुर्थ भूमिका है। यह यथार्थ दृष्टि तीन प्रकार की होती है। औपशमिक, क्षायिक. क्षायोपशमिक । दर्शनमोह की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकत्व, इन तीन प्रकृतियों तथा चारित्रमोह की अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों-कुल सात प्रकृतियों के उपशम से आत्मा औपशामिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। सर्व प्रथम यही औपशामिक तत्त्वदर्शन www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy