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O डा0 कृष्ण बिहारी मिश्र
हिन्दी पत्रकारिता : हजका पत्र विरासत की रोशनी और
साम्प्रतिक दशा
आजादी के बाद के जातीय परिदृश्य को देखकर सहज ही धारणा बनती है कि साधना-संघर्ष का काल शेष हो गया और हर क्षेत्र में क्रियाशील भोग की उद्धत लीला ही आज की संस्कृति है। मूल्य-निष्ठा
और अनुशासन-आग्रह को अप्रासंगिक पुरा राग मानकर अपना भाग्य जगाने के लिए उसके विपरीत पथ से यात्रा करना आज का चालू कौशल है, जिसकी सिद्धि ही सिद्ध होने का प्रमाण समझी जा रही है। अनुशासनहीनता का अंधड़ और विलासप्रियता की सनकी स्पर्द्धा दिन-दिन समृद्ध होती जा रही है। पत्रकारिता के चेहरे-चरित्र में आजादी के बाद के पिछले दशकों में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। पूंजी का वर्चस्व पुष्ट हुआ है। साधना-सुविधा में अभूतपूर्व समृद्धि आई है। अपने पद की गुरुता-महत्ता से उदासीन आज का पत्रकार देश के दुर्भाग्य को अपना दुर्भाग्य' मानने और अपनी विरासत के उज्ज्वल अध्याय को अपना आदर्श बनाने को तैयार नहीं है। समाज के दूसरे वर्ग के लोगों की तरह वह निजी समृद्धि और विलास - वैभव में जीने की आकुल स्पृहा से आन्दोलित होकर रंगीन राहों - घाटों पर दौड़ता नजर आ रहा है। पत्रकारिता की विकसित सुविधाओं और अनुकूल साधनों का विधायक दिशा में यदि नियोजन नहीं हो रहा है और पीड़क यथार्थ है कि समाज-संस्कार की सजातीय और विशिष्ट भूमिका से साम्प्रतिक पत्रकारिता काफी हद तक विरत हो चुकी है, तो यह धारणा पुष्ट होती है कि पत्रकार के व्यक्तित्व में स्खलन आया है और पत्रकारिता का धवल धरातल बड़ी तेजी से प्रदूषित हो रहा है। वर्तमान ढाही के लक्षणों को लक्ष्य कर मूल्य-भित्तिक पत्रकारिता के पुराने पुरस्कर्ता आसन्न अंधकार के प्रति चिंतित थे। बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी और शिवपूजन सहाय ने पत्रकार-कुल की धवलता का बार-बार तीव्र आग्रह प्रकट किया था। मगर पूंजी के प्रताप ने पत्रकारिता की मूल्य - मर्यादा को बुरी तरह क्षत कर दिया। व्यवसायवाद ही एकमात्र आदर्श बन गया। स्खलन को नये मुहावरों से महिमान्वित करते गर्वपूर्वक कहा जाने लगा है कि पत्रकारिता आज व्यवसाय है, आदर्श का सवाल उठाना अप्रासंगिक राग टेरना है। आत्मश्लाधा के साथ ऐसी घोषणा करने वाले निरापद जिन्दगी के कायल, आज के सुविधाजीवी लोग यह भूल जाते हैं कि हर व्यवसाय की स्वतंत्र प्रकृति और आचार-संहिता होती है। अन्य व्यवसायों से भिन्न प्रकृति होती है पत्रकारिता की। इस भिन्नता में ही उसकी विशिष्टता और महत्ता है। मगर समाज के अर्थ-सम्पन्न लोगों की तरह उपभोक्ता संस्कृति को ही अपने विलासोन्मुख आचरण द्वारा अपना धर्म मानने वाले आज के पत्रकार वृत्ति-विशिष्टता के बोध
और उससे जुड़े गुरुतर दायित्व से उदासीन हो गये हैं। परिणामत: व्यावसायिक, राजनीतिक प्रलोभनों की रंगीन माया में भटकना और अपनी विपथगामी यात्रा से अपने कुलगोत्र के प्रति अन्यथा धारणा को जन्म देना उनकी लाचारी बन गयी है।
चिन्ताशील जगत् को यह स्थिति उन्मथित करती रहती है कि जो भाषा सामाजिक-राजनीतिक कुकर्म पर बेलाग टिप्पणी करती थी, पत्रकार
विज्ञप्त तथ्य है कि जातीय अभीप्सा की गतिमान ऊष्मा ने पत्रकारिता के चरित्र को प्राण-पुष्ट बनाया। विरासत की उज्ज्वल साधना याद आती है कि साम्राज्यशाहीतोप के प्रतिरोध में क्रियाशील और जयी भारतीय पत्रकारिता ने अपने समय की चुनौती का पूरी शक्तिमत्ता से मुकाबला किया था। आदि पर्व के पत्रकारों की साधना का एकांत लक्ष्य था साम्राज्यशाही अभिशाप से मुक्ति। इसके लिए बड़ी से बड़ी यातना झेलने को वे प्रस्तुत रहते थे। और जब-तब विकट आतंक रचने वाली परिस्थिति तथा बड़े से बड़े प्रलोभन उन्हें आदर्शच्युत करने में विफल रहे। मांडले जेल की यातना झेलने वाले तिलक और अपनी गृहस्थी को जीवित रखने के लिए स्तरहीन परिस्थिति से आहत होने वाले पं0 अमृतलाल चक्रवर्ती की आस्था-निष्ठा शेष तक अक्षत रही। लोकमान्य तिलक के पूर्ववर्ती, उनके समकालीन समानधर्मा और उनकी आदर्श-सरणि से यात्रा करने वाली परवर्ती पत्रकार-पीढ़ी ने निजी स्वार्थ को ताक पर रखकर अपनी प्रातिभ शक्ति और जीवन-चर्चा को देश के मुक्ति-संग्राम में नियोजित कर दिया था। पत्रकारिता की अतीत पीढ़ी के कृती पुरुषों को यह बोध था कि पत्रकार की भूमिका लोकनायक की भूमिका होती है। इसी विवेक और गुरुतर भूमिका से समृद्ध है पत्रकारिता की विरासत।
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / १६
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