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आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री,
थक-थक कर औ चूर-चूर हो, अमल-धवल गिरि के शिखरों पर, प्रियवर, तुम कब तक सोये थे? रोया यक्ष कि तुम रोये थे?
कालिदास, सच-सच बतलाना।' यह कविता यह ध्वनित कर रही है कि अज या रति या यक्ष के माध्यम से जिस विरह की व्यंजना कालिदास ने की है, वह उनके अपने अन्तर के विरह की अनुभूत वेदना थी। कवि की अपनी भोगी हुई विरहपीड़ा की प्रत्यक्षता और विरहपीड़ित स्वजनों की पीड़ा की साक्षिता सम्मिलित रूप से उसका वह अनुभव-कोष है जिसके आधार पर वह अपने पात्रों की विरह वेदना का चित्रण करता है। अपने अनुभवों को वाणी देने के लिए, तल्लीनता के साथ-साथ जिस तटस्थता की कुछ दूरी की आवश्यकता होती है उसकी सिद्धि के लिए कालिदास ने इन पात्रों के माध्यम से अपने विरहानुभव को व्यंजित किया था। अत: कालिदास के पात्रों की विरहव्यंजना में स्वयं कालिदास की विरहानुभूति और विरह सम्बन्धी तात्त्विक दृष्टि समाहित है, इस मान्यता का औचित्य स्वीकार्य
कालिदास की विरह-व्यंजना 'कालिदास की विरह-व्यंजना', इस शीर्षक का थोड़ा स्पष्टीकरण अपेक्षित है। इस शीर्षक से एक अर्थ यह ध्वनित होता है कि अपने साहित्य के पात्रों के द्वारा कालिदास ने विरह का जो रूप अंकित किया है उसकी विवेचना इस लेख में की जायेगी। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि स्वयं कालिदास ने विरह का जो अनुभव किया है उसकी व्यंजना करने का दुष्प्रयास इस लेख का अभीष्ट है। यह दूसरा अर्थ कुछ अटपटा लगता है लेकिन मेरा विश्वास है कि ये दोनों अर्थ परस्पर पूरक हैं।
कालिदास ने विरह का जो मार्मिक तीव्र अनुभव किया होगा वही अनुभव भिन्न-भिन्न पात्रों के माध्यम से भिन्न-भिन्न कृतियों में भिन्न-भिन्न स्थितियों में प्रतिफलित हुआ होगा, यह अनुमान असंगत नहीं कहा जा सकता। अपनी इस मान्यता के समर्थन में हिन्दी के विदग्ध कवि नागार्जुन की एक मर्मस्पर्शी कविता के कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूँ
कालिदास, सच-सच बतलाना, इन्दुमती के मृत्युशोक से, अज रोया या तुम रोये थे? कालिदास, सच-सच बतलाना।
रति का क्रन्दन सुन आँसू से, तुमने ही तो दृग धोये थे? कालिदास, सच-सच बतलाना,
रति रोयी या तुम रोये थे? कालिदास, सच-सच बतलाना, पर-पीड़ा से पूर-पूर हो,
___ इस विवेचन को आगे बढ़ाने के पहले विरह सम्बन्धी कालिदास की तात्त्विक दृष्टि पर थोड़ा विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। कालिदास की विरह सम्बन्धी धारणा प्रेम सम्बन्धी उनकी मान्यता पर अवलम्बित है। प्रेम अपने शिथिल अर्थ में विशेष कर कविता के शृंगारी सन्दर्भ में मनोनुकूल नर या नारी के प्रति मन की प्रवणता को व्यक्त करता है। प्रेम के और व्यापक तथा गंभीर अर्थ भी होते हैं किन्तु उपर्युक्त अर्थ में नर-नारी की कामासक्ति उसमें अनायास अन्तर्निहित रहती है। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि कालिदास की दृढ़ मान्यता थी कि कामासक्ति एक सतही स्थिति है। केवल शारीरिक रूप का पिंड आकर्षण मनुष्य के हृदय में जिस उत्कंठा को जन्म देता है वह भोगपरायण है और उसके द्वारा उस गंभीर अनुभूति का उदय नहीं होता जिसे प्रेम कहा जा सकता है। अप्राप्त प्रिय की प्राप्ति होने के बाद अगर उसके प्रति आकर्षण शिथिल हो जाय, उसमें सातत्य न बना रहे तो यह मानना पड़ेगा वह प्रेम न होकर काम ही था। ___ कालिदास प्रेम में शरीर के मिलन को नकारते तो नहीं किन्तु उसी तक सीमित नहीं रहते। कालिदास नर-नारी के मिलन को बहुत सूक्ष्मता से, स्पष्टता से कलात्मक रूप में अंकित करते हैं। ऐसा करते समय किसी भी प्रकार की कुंठा का वे बोध नहीं करते। फिर भी कालिदास की दृष्टि में शरीर के धरातल का अतिक्रमण कर जब प्रेम 'भावनिबन्धना रति' की भूमिका पर अधिरोहण करता है, तभी सार्थक होता है। 'भावनिबन्धना रति' शब्द कालिदास का ही है। इन्दुमती के प्रति अज ने अपने प्रेम की अभिव्यक्ति इसी शब्द के माध्यम से की थी। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक यौवन और सौन्दर्य दोनों वास्तविक प्रेम को उद्दीप्त करने में समर्थ नहीं होते। यौवन तो जीवन के एक काल
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड /८
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