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कन्हैयालाल डूंगरवाल
"समाजवादी आन्दोलन की शुरुआत भारत में और दुनिया में एक अर्थ में तो बहुत पहले हो जाती है। वह अर्थ है अनासक्ति की मिलकियत और ऐसी चीजों के प्रति लगाव खतम करने का, या कम करने का, मोह घटाने का। इस अर्थ में समाजवादी आन्दोलन का आरम्भ भारत में और विश्व में बहुत पहले से है किन्तु जब से समाजवाद के ऊपर कार्ल मार्क्स की छाप बहुत पड़ी, तब से एक दूसरा अर्थ सामने आ गया। वह है सम्पत्ति की संस्था को खतम करने का, संपत्ति रहे ही नहीं, चाहे कानून से चाहे जनशक्ति से पहला अर्थ था सम्पत्ति के प्रति मोह नहीं रहे और अब अर्थ हुआ है कि सम्पत्ति रहे ही नहीं। रूस अपनी क्रान्ति करके सम्पत्ति को मिटा चुका 1919 में। उसके बाद से सारी दुनिया में समाजवादी आन्दोलन की एक धारा ऐसी बही कि जो सम्पत्ति को मिटाना चाहती थी लेकिन "उसके साथ-साथ, रूस के साथ जुड़ जाती थी । साम्यवादी उसको कहेंगे कि वह अंतर्राष्ट्रीय धारा थी । मेरे जैसा आदमी कहेगा कि वह परदेशमुखी धारा थी । " ... राममनोहर लोहिया ।
राष्ट्र के विकास में समाजवाद का योगदान
हिन्दुस्तान में असली समाजवादी धारा 1934 में आरम्भ हुई। पहले अलग धाराओं के लोगों ने मिलकर कांग्रेस में ही कांग्रेस समाजवादी दल का निर्माण किया, उनमें आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाशनारायण, राममनोहर लोहिया, नारायण गोरे, अच्युत पटवर्धन आदि अनेक नेता
थे ।
उन्होंने कांग्रेस में देश की सम्पूर्ण आजादी और समाजवादी समाज
हीरक जयन्ती स्मारिका
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की स्थापना को अपना उद्देश्य बनाया। यह गुट कांग्रेस के अन्दर अदरकी ( मिर्च) गुट था, गरम दल। आजादी के लिए संघर्ष करने, सत्ता व समझौते के खिलाफ जूझने वाला गुट। इसका नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू करते थे, किन्तु जब गरम लोगों के प्रस्ताव गिर जाते थे तो नेहरूजी कांग्रेस के बहुमत के साथ सत्ता आदि प्राप्त करने में भागीदार हो जाते थे असल में देश के सबसे बड़े समाजवादी कहे जा सकते हैं, किन्तु वे कई मामलों में समाजवादियों से मतभिन्नता रखते थे किन्तु उनकी बहादुरी से प्रभावित थे और इसीलिए देश की आजादी के संघर्ष में खासकर 1942 की क्रांति में समाजवादियों का बहुमूल्य योगदान रहा। "भारत छोड़ो आंदोलन में" समाजवादियों के योगदान की बहुत महान् भूमिका है, जिसकी तरफ इस लेख में केवल इशारा किया गया है। सन् 1942 के "अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन' में समाजवादी लोगों ने रूस मित्र राष्ट्रों के साथ युद्ध में होने के कारण उसे “जनयुद्ध” की संज्ञा दी और इसलिए वे आंदोलन के विरोध में रहे और ब्रिटिश हुकूमत का साथ दिया। साम्यवादियों के कई बड़े नेताओं ने अपनी इस महान् भूल को बाद में स्वीकार किया है, साथ ही आपातकाल में दक्षिण पंथी कम्युनिस्टों ने इंदिरा गांधी का साथ दिया और वामपंथी कम्युनिस्ट तटस्थ रहे। आज दोनों कम्युनिस्ट एक नहीं हो रहे समाजवादियों के कई टुकड़े हो गए और आज देश में व्यापक समाजवादी आंदोलन की कमी है। प्रयास जारी हैं। रूस में साम्यवादी व्यवस्था के पतन और पूंजीवादी उपभोक्ता संस्कृति के दस्तक देने और विघटन होने से लोगों ने ऐसा मानना शुरू कर दिया है कि समाजवाद का अंत हो गया, किन्तु ऐसा नहीं है। अमरीकी साम्राज्यवाद और नई पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था ने दुनियां में गरीब और पिछड़े राष्ट्रों के शोषण का नया लुभावना रास्ता निकाला है। विदेशी बहुराष्ट्री कम्पनियों के प्रादुर्भाव व नई अर्थ-व्यवस्था ने आजादी के आंदोलन में उपजी त्याग और समता की संस्कृति और समाजवादी आंदोलन की उपलब्धियों को भारी चुनौती दी है और विश्व व्यापार संगठन के चक्कर में देश फंस गया है। ऐसी विषम परिस्थिति
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भारत राष्ट्र की मुक्ति और निर्माण में समाजवादी आंदोलन के बहुमूल्य योगदान को याद करना प्रासंगिक है । खास-खास मुद्दे निम्न हैं:1: देश के बंटवारे का विरोध किन्तु सक्रियता से आंदोलन न कर
पाने के कारण बाद में बंटवारे को नकली बनाकर भारत पाक एका और ढीला-ढाला महासंघ बनाने का विचार दिया जो अंततोगत्वा भारत-पाक बंगलादेश - काश्मीर आदि समस्याओं का स्थाई और शांतिपूर्ण हल होगा और युद्ध तथा साम्प्रदायिक झगड़ों से सबको मुक्ति दिलायेगा।
2: देश में आजादी मिलने के बाद समाजवादी अर्थ व्यवस्था और नियोजन की ओर झुकने के लिए संघर्ष । फलस्वरूप कांग्रेस ने समाजवादी मुखौटा ओढ़ा और बैंक, बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ तथा कई मूल उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में लगे । सार्वजनिक और निजी उद्योगों के दोष गिनाये।
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3 किसान मजदूर युवजनों के आंदोलन उन्हें अपने हक दिलाने में काफी हद तक कामयाबी ।
4: गोवा मुक्ति आंदोलन में सक्रिय भूमिका । 1946 में डॉ. लोहिया
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विद्वत् खण्ड / ६
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