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होते हैं। वे हमारे समाज के सामने अनुचित आदर्श प्रस्तुत करते हैं। प्रेम जैसे शुद्ध तथा दिव्य भाव को कुत्सित वासना के रूप में प्रचलित करके चलचित्रों ने हमारा घोर पतन किया है।
हमारे समाज में गुरु को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। वह अपने शिष्य के मार्गदर्शक होते हैं। उन्हीं की कृपा से भक्त ईश्वर के दर्शन करता है। कबीर ने गुरु को गोविन्द से बड़ा माना है
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लांगू पाय। बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥"
कबीर का यह भी कहना था कि शरीर विष की लता है, गुरु अमृत की खान है, प्राण देकर भी गुरु को प्राप्त करना चाहिए -
“यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥" पर आज के इस युग में यह आदर्श कहां। न जाने आजकल के छात्र अपने गुरु का आदर क्यों नहीं करते। हमारे ये सब आदर्श धरे
के धरे रह गए। यह हमारे विचारों का पतन है, जिसका सीधा असर हमारी संस्कृति पर पड़ रहा है। हमें चाहिए कि हम अपने उन आदर्शों को पुन: जाग्रत करें और उसी राह पर चलें।
वर्तमान युग में भारतीय संस्कृति अब धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। इसके लिए सरकार, शिक्षक तथा छात्र समाज ही उत्तरदायी है। शिक्षकों का यह दायित्व बनता है कि वे छात्र वर्ग को भारतीय संस्कृति के बारे में बताएं। हमें अपने बुजुर्गों से मिली इस अनमोल विरासत को बचाना है। क्योंकि भारत की पहचान उसकी संस्कृति से होती है। अगर हम अपनी संस्कृति को बचाने में कामयाब हो गए तो माखनलाल चतुर्वेदी की ये पंक्तियां बिल्कुल सार्थक साबित होंगी
"गई सदियां कि यह बहती रही गंगा गनीमत है कि तुमने मोड़ दी धारा।"
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्यार्थी खण्ड /६
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