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अम्बर खेमका, XII-A
क्यों आज का सच असमान है देखा था, इसे पेड़ तले, सड़क किनारे, दोनों पैर थे बेकार बेचारे, हाथ थे केवल उसके सहारे। मांश पेशियों का न था कोई स्थान, मानो हड्डियों में ही हो बची जान॥ हो चली थी उम्र उसकी काफी, हाथ फैलाना ही रह गया था बाकी॥ सोचता था, चंद सिक्कों से रहेगा, वह रहा दीन, कभी मैं ही बदलूंगा, उसके दिन। फिर भी मन न माना, कुछ देते रहना ही उचित जाना। पर मुझे थी उस दिन की आस, जब देने को सब कुछ होगा मेरे पास । जाता था, वो करने जो उस सड़क को पार, तभी पड़ी उसे चलती गाड़ी की मार ।। छोड़े प्राण और मिली मुक्ति, यही थी छुटकारे की एकमात्र युक्ति।
टूटा जीवन जो जी रहा था, सदा के लिए वो छूट गया। मैं तो कुछ न दे सका, लेने वाला चला गया। थी वो, इतनी हल्की लाश, पर उठा न पाया कोई जिगर ॥ अस्तित्व न उसके जीवन में था, न ही उसे मरने पर मिला। क्यों तुम ऐसे लोग बनाते? जो जीकर भी कुछ नहीं देख पाते। यह सच है, न कोई उनका होता है, न वे किसी के होते हैं। पर, कोई तो ऐसा होगा, जिसके वे होते हैं। इनके जीवन के कारण वही तो होते हैं, आनेवाले कल के कारण यही तो है। चढ़ते हैं, आकाश, पैसों से कुछ लोग, इनको जमीन पर तो रहने का दो भोग। अपनी दौड़ का, फासलों का, कुछ तो करो नाप तौल॥
आज भी लेकिन, सहारा लेने वाले हाथों की तो कमी नहीं, देने वालों की जरूर वृद्धि हुई नहीं। अंत तो सभी का समान है, फिर क्यों आज का सच असमान है?
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्यार्थी खण्ड /३
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