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करने पर अपने मनमाफिक अध्ययन से वंचित हो गये।
गांवों में मैं कई जगह जाता हूं। घरों में, खलिहानों में लोगों से बातें करता हूं। गीत सुनता हूं, नृत्य देखता हूं पर अब वह बात नहीं रही जो 25-30 बरस पूर्व थी। तब बड़ी आत्मीयता थी लोगों की बातचीत में, मिलने मिलाने में पर अब जैसे उन्हें फुर्सत ही नहीं है।
घुमक्कड़ जातियों के तो हाल ही बेहाल हो गये हैं। हर पंक्ति और हर गीत का जब तक उन्हें पारिश्रमिक नहीं मिलेगा वे आगे आपका काम नहीं होने देंगे। एक चित्र भी खींचा तो बिना उसका पारिश्रमिक लिए वे आपको वहां से हिलने नहीं देंगे। दिनभर बैठे रहेंगे मगर कोई जानकारी वे बिना कुछ लिए और वह भी अपनी मरजी का, आपका कोई काम नहीं करेंगे न अन्यों से ही करवाने देंगे। यह सब उन विदेशी अध्येताओं का खेल रहा जो जल्दी फल्दी में आते हैं और मनमाना पैसा लुटाकर अपना काम कर ले जाते हैं।
पर हम इस सत्य को भी नहीं छुपा सकते कि जो काम विदेशियों ने किया वह काम उतने अच्छे ढंग से यहां के लोग नहीं कर पाये । साधन सुविधाओं से सम्पन्न होने के कारण विदेशी लोग आंख मींचकर पैसा यहा तो देते हैं पर यहां की संस्कृति, भूमि, भूगोल और समग्र परिवेश का परिचय नहीं होने के कारण वे जो कुछ अध्ययन - निष्कर्ष वहां जाकर देते हैं उसमें बड़े फोड़े नजर आते हैं। कई बार भारत में भी उन्हें सही अध्येता नहीं मिल पाने के कारण वे कई गलत सूचनाओं को बटोर ले जाते हैं। मुझे मालूम है, कई लोग एक ही विधा का अध्ययन करने इसीलिए बार-बार आते हैं कि उन्हें सही स्थान, व्यक्ति और विधा तक की जानकारी नहीं मिल पाती है और तब वे अपना सिर ठोकने लगते हैं।
यह ठीक है कि लोककलाएं किसी भू-भाग विशेष की धरोहर होती हैं परन्तु उनकी मूल उद्भावनाओं के अंश अंश कोर तो विश्व के न जाने कितने भू-भाग को नापते समेटते पाये जाते हैं। राजस्थान के सर्वाधिक लोकप्रिय पणिहारी गीत का कथा- बिंदु विश्व के कई भागों में प्रचलित है। लोककथाओं की, बालगीतों की, लोरियों की भी यही स्थिति देखने को मिलेगी। कोई घुमक्कड़ अध्येता यदि लोककलाओं की अध्ययन-यात्रा में अन्तर्राष्ट्रीय देशाटन करे तो उसे यह जान बड़ा अचरज होगा कि जहां-जहां मनुष्य हैं वहां-वहां की लोककला और लोकसंस्कृति का मूल उठाव समानधर्मा है। कलामण्डल में आये दिन आने वाले विदेशी अनुसंधित्सु -अध्येताओं से जब वार्ता -विमर्श होता है, तो पता लगता है कि इन कलाओं का सारा संसार एक है।
राजस्थान की पड़ों पर अध्ययन कर रहे ब्रिटेन के डॉ. स्मिथ कला - मण्डल में भी मिले और जोधपुर में कोमल कोठारीजी के घर भोपों के साथ रेकार्डिंग करते हुए भी मिले पाबूजी की पड़ पर इन्होंने रातदिन एक कर बहुत ही समृद्ध और अच्छी सामग्री का संकलन किया है जब मैने इनसे पूछा कि पड़ों की तरह उनके उधर भी ऐसी कोई प्रचलित शैली है क्या तो उन्होंने बताया कि यूरोप में पड़वाचन से ही मिलती-जुलती एक शैली है जिसमें चित्रावली में सिसली के डाकुओं
हीरक जयन्ती स्मारिका
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की कहानी गूंथी होती है। पड़ ही की तरह इस चित्रावली के चित्रों को इंगित कर कर कहानी गाई जाती है।
पाबूजी देवनारायणजी के भोपे भी पड़ - चित्रावली के चित्रों को इंगित करते हुए एक-एक चित्र की गाथा गायकी देते हैं और रात-रात भर नाच-गाकर श्रद्धालु भक्तों की मनौती पूरी करते हैं। मैंने जब डॉ. स्मिथ को बताया कि राजस्थान में माताजी की पड़ एक ऐसी पड़ है जिसका वाचन नहीं किया जाता पर जिसे चोर लोग रखते हैं और जब वे चोरी करने निकलते हैं तब उसकी मानता करते हैं। उसकी पूजा करते हैं और शुभ शकुन लेते हैं। बावरी व वागरी लोग इसे खासतौर से मानते
हैं।
इस पड़ चित्रकारी के चितेरा जोशी खानदान के हैं जो मूलतः भीलवाड़ा जिले के पुर गांव के हैं। तब इसका नाम पुरमांडल था। बाद में शाहजहां ने जब शाहपुरा बसाया तो मेवाड़ के कलाकार मांगे। महाराण ने तब यहां के चितेरों को शाहपुरा भेजा। सबसे पहले पांचाजी गये।
वर्तमान में पड़ चित्रकारी के लिए श्रीलालजी जोशी बड़े नामी कलाकार हैं। इन्होंने पारम्परिक पड़ शैली में कई नये प्रयोग किये बारामासा रागमाला से लेकर प्रताप, पद्मिनी, हल्दीघाटी, ढोला मारू, पृथ्वीराज जैसे राजस्थानी ऐतिहासिक कथानकों पर पड़-चित्रांकन किया। यह प्रयोग भित्तिचित्रों में भी किया। सिल्क पर पड़ांकन कर भी किया। मास्को, स्वीडन, जापान, पाकिस्तान, नेपाल में भी किया। देश-विदेश के कई संग्रहालयों, बड़ी बिल्डिंगों, होटलों में भी किया। इस कला से प्रभावित हो भारत सरकार के डाकतार विभाग ने देवनारायण के पड़ चित्र पर श्रीलालजी के बहुरंगी रेखांकन का डाक टिकिट भी जारी किया।
हंगरी के रोडेल्फ वीग राजस्थान की घुमक्कड़ जातियों पर अध्ययन करने आए तो उन्हें उदयपुर की कालबेलिया कॉलोनी में ले गया । वे यह जानना चाहते थे कि उनके उधर जो घुमक्कड़ जातियां हैं वे भारत से ही कभी उधर पहुंची दीखती हैं उधर की उन जातियों के लोकसंगीत पर उन्होंने गहराई से अध्ययन किया था। यहां भी वे मुख्यतः इन जातियों के लोकसंगीत पर ही अध्ययन करना चाहते थे। मैने जब कुछ कालबेलियों के गीतों का रेकार्डिंग करवाया तो वे इधर की भाषा से परिचित नहीं होते हुए भी उछल पड़े और कह बैठे कि मेरा भारत आना सार्थक हो गया है। उधर की जातियों के अध्ययनोपरांत मेरा मन यह कह रहा था कि ये लोग भारत से ही चलकर यहां आ बसे हैं। आज यह बात सही उतर गई है। वहां की घुमक्कड़ जातियों का लोकसंगीत भी ठीक इसी प्रकार का है।
ताशकंद में जोगियों की एक बस्ती है जो तंदूरे पर भक्तिगीत गाकर अपना जीवन बसर करती है। अध्ययन करने पर पता लगा कि उदयपुर का आलम जोगी वहां पहुंच गया और बस गया। उसी से धीरे-धीरे जोगियों की एक वस्ती हो गई वही पहनावा, संगीत, वाद्य, संस्कृति और सब कुछ पिछले दिनों न्यूयार्क विश्वविद्यालय के संगीत प्रोफेसर ट्राइटल ने जब कलामण्डल संग्रहालय के वाद्य कक्ष में रखे रेगिस्तानी मांगणिहारों का मोरचंग वाद्य देखा तो कहा कि अमेरिका में भी यह
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विद्वत् खण्ड / २८
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