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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि चेतना महा अस्तित्व में विलीन होना चाहती हो। ज्यादा समय-सीमा में समेट लेना चाहती थी। प्रस्तुति के राजस्थान की मरुभूमि पर खिलने वाला यह महासुमन समय पसीना छूट रहा था। मेरी बार-बार दृष्टि गुरुदेव की अपने गुणों की सुवास से विश्व के गगन मण्डल में छा ओर जाती थी कि गुरुवर श्री सुन रहे हैं या नहीं। जिह्वा गया। अपनी ज्ञान-धारा से मरुभूमि को ही नहीं, पंजाब, बोल रही थी - मन सोच रहा था कि शायद मेरी प्रस्तुति हिमाचल. हरियाणा, दिल्ली. उत्तरप्रदेश. मध्यप्रदेश. में कोई सार नहीं है। मैं इस परिषद् के योग्य नहीं। मन आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि क्षेत्रों में ज्ञानामृत मायूस हो रहा था क्योंकि जब भी गुरुवर की ओर नजर बरसाते हुए तप्त हृदयों को शान्ति देते हुए अहिंसा मार्ग जाती उन्हें बस कलम से छोटे से पेज पर कुछ लिखते ही पर अग्रसर, अपने सम्यक् चारित्र की अमिट छाप जन पाती थी। गुरुवर द्वारा मन में तारीफ की कुछ चाह थी। मानस पर अंकित करने वाले, जिनवाणी की सरल-सरल | एक बार भी आपश्री का ध्यान श्रवण की तरफ नहीं व्याख्या करते हुए आत्मार्थी तत्त्व जिज्ञासु, भव्यात्माओं के । पाया। मानव मन की कुछ स्वाभाविक कमजोरियों में से मैं लिए वह निरन्तर आनन्द प्रदायक है। आपके श्री मुख से ऊपर नहीं उठ पाई थी। निराशा व अवसाद का कोहरा जिनवाणी का एक-एक शब्द मानस मन्दिर में सुमधुर मानस पर छाने लगा। अपने प्रयास की निरर्थकता दृष्टिगोचर कर्णप्रिय संगीत सा झंकृत हो उठता है। सुनकर सहज ही होने लगी पर महापुरुषों की महानता की थाह यह अहंकारी देव-गुरु-धर्म पर अनुराग आता है। और यह जागृति चित्त कब लगा पाता है? सन्तों के सारे कार्य ही विलक्षण जीवन में सार्थक परिवर्तन का माध्यम बन जाती है। गुरु होते हैं। आपने सभा के अन्त में जो सुन्दर समीक्षा दी वह कल्पवक्ष की विशाल छाया देते हैं। समस्त द:ख-दर्दो को मेरी ज्ञानदृष्टि में सहायक बनी। आप सबको गहराई से तिरोहित कर, अनिर्वचनीय आनन्द सागर में लीन कर देते हैं। | सुन रहे थे। और जहाँ सुधार की आवश्यकता होती वहीं स्थितप्रज्ञ योगी की तरह आप श्री सदैव शरीर स्नेहिल शब्दों में सुझाव दे देते। आत्मा की व्याख्या करते हुए, जड़-चेतन जैसे विषय को ___ गूढ़ से गूढ़ रहस्य भरे आध्यात्मिक विषयों पर भी सरलता से हृदयंगम करा देते हैं। आपने फरमाया - सरल शैली में समझाने की अद्भुत कला है - आपश्री में। "हमारी सारी शक्ति जड़ साधना में लगी है। जब तक अपनत्व से भरपूर है - आप की वार्तालाप शैली। जो हमारा पुरुषार्थ जड़ क्रियाओं में लगेगा तब तक हम मोक्ष एक बार कुछ क्षणों के लिए ही सम्पर्क में आया वह मार्ग की साधना नहीं कर सकेंगे।" जीवन भर के लिए समर्पित हो गया। ऐसा है आपका हाल ही में चन्द माह पूर्व 'जैनभवन' में घटी अनमोल सच्चरित्र और प्रभावशाली व्यक्तित्व । आज आपने एक क्षणों के व्यापक, गहरे अमिट प्रभाव की छाप को मैं भूल बड़ी सच्चाई कही – “अहंकार ही संसार का बन्धन है। नहीं सकती। हुआ यों कि “जैन विद्वद्गोष्ठि” का एक बाह्य सभी भौतिक वस्तुएँ अहं का पोषण करती हैं। आकर्षक आयोजन रखा गया। विद्वान् स्वाध्यायियों ने जिस दिन अहं को मिटा देंगे उस परमात्मा-शक्ति से सीधा अपने सार गर्भित वक्तव्य प्रस्तुत किए। यह सारा आयोजन साक्षात्कार हो जाएगा।" गुरुदेव की सन्निधि में चल रहा था। आपश्री के समक्ष मेरे परम कृपालु सद्गुरु ने वीतरागता का सच्चा मार्गदर्शन वोलने का यह पहला अवसर था। मन में कुछ हिचकिचाहट, किया, मेरे मन में उठ रही जिज्ञासा एवं समस्या का संकोच व भय के भाव थे। आयोजकों ने वक्तव्य की समाधान हो गया। मेरे मन में मेरी वक्तृत्व कला का सीमा निर्धारित कर दी थी अतः अपनी अनुभूतियों व | अहंकार सहस्र फणों के साथ फुकार रहा था वह शांतअहसासों से जो अल्प प्रयास किया था उसे ज्यादा से । प्रशांत हो गया। अहंकार मिटा, जिनवाणी का सरस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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