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वंदन-अभिनंदन !
मद्रास शहर में गुरुदेव के सुन्दर संस्मरणीय चातुर्मास | विराजित साधु सन्तों के दर्शनार्थ संघ निकाला गया। मैं मेरे जीवन में परिवर्तन के अमूल्य धरोहर हैं या यूं कहूँ कि | भी सम्मिलित थी। सौभाग्य से व्याख्यान में पहुंच गए। वे क्षण अमर हो गए जब अज्ञान अन्धकार में दर-दर | भौतिकवादी मानव और उसके विषय में जीवन के वेदना ठोकरें खाने वाली व जीवन के साधना पथ में गुम राह युक्त उद्गार उस संवेदनशील हृदय से निकल रहे थेहुई, उनके आत्मसार गर्भित ज्ञान-चर्चा के श्रवण से नीर
____ “आज की पाश्चात्य सभ्यता ने इतनी विषम और क्षीर विवेक जागृत हुआ, भेद-विज्ञान की दृष्टि मुझे मिली।
जटिल परिस्थितियों को जन्म दिया है कि मानव अपनी सत्य-असत्य, पुण्य-पाप, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व, ग्रहण करने उच्च संस्कृति व संस्कारों को कैसे बचाएँ? अपनी साधना योग्य, छोड़ने योग्य का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। शारीरिक को उच्चता के शिखर पर कैसे ले जाए?" . आँखों के होते हुए भी अन्तर चक्षुओं से अन्धी बनी
आपने इस विषय पर सुन्दर मार्ग दर्शन दिया और अनेक आत्माओं में धर्म-बीज का वपन किया। ऐसे त्यागी,
संस्कृति के नाम पर पनप रही विकृति से सावधान किया। संयमी, समीति-गुप्ति के पालक, जागरुक, निडर. निर्मोही. निस्पृह, निर्मल, निरभिमानी, ज्ञानी, योगी, महात्मा के
उठते ही नव प्रभात की पहली किरण के साथ मुखारविन्द से पीयूष प्रवचन सुन सबकी थकान मिट
गुरुदेव को भाव वन्दन करती हूँ तो मन भावों की गहराई जाती है। व्याख्यान ऐसे बेजोड़ होते हैं कि उनका अमृतमय
में सोचता है - रस पान जीवन में कभी नहीं भुला पाएँगे। सब में भाव इस भीषण कलिकाल में भी गुरु का सान्निध्य व परिवर्तन की शुद्ध, स्वच्छ, स्फटिक धारा प्रवाहित होने अमृतवाणी का रसास्वादन मिलता है। आपके महान लगती है। इस धारा में सहज ही चित्त की मलिनता व्यक्तित्व के आगे मेरा हृदय झुक जाता है। मैंने सदैव धुलकर साफ हो जाती है। मेरी एक मित्र जो प्रथम बार आपको जागृत व सावधान पाया। आपकी समता आश्चर्य मेरे साथ गुरुदेव के दर्शन एवं प्रवचन सुनने आई उसने कारी है। जड़ और चेतन के स्वरूप को हृदयंगम कराने मुझे लौटते वक्त भावों में डूबते हुए कहा – “ये सद्गुरु वाले, स्व स्वरूप की रमणता पर जोर देनेवाले, सार परम उपकारी, धर्मदाता व समकित दाता हैं। हमें अपने गर्भित, भवसागर तारिणी जिनवाणी का ज्ञान देने वाले जीवन को मोक्षगामी बनाना चाहिए।" प्रथम दर्शन एवं | गुरुवर से अनेक आत्माओं ने हितशिक्षा पाई है और पा प्रवचन श्रवण से इतनी चित्त की निर्मलता, संतोष, शान्ति | रहे हैं। आप अक्सर कहा करते हैं कि ज्ञानदृष्टि से अपने
और अनन्दानुभूति प्राप्त हुई उसे। अगर सन्निध्य की लघु | को देखो, विषमताएँ स्वतः ही समाप्त हो जाएँगी। अष्ट डोर थोड़ी ओर लम्बी हो गई होती तो जीवन का आमूलचूल | प्रवचन माता, श्रीमद् रामचन्द्रजी का आत्मसिद्धि शास्त्र, परिवर्तन हो जाता। मस्तिष्क में रहे अज्ञान के कूड़े- उत्तराध्ययन आदि तत्त्वों के महा मर्मज्ञ का यही है चिन्तन! करकट एवं भीतर के मिथ्यात्व का अग्नि संस्कार कर, जैन दर्शन ही नहीं अन्यान्य मतों के जानकार, साहित्य समकित की प्राप्ति हेतु सहज चित्त भावित होने लगा।
तथा प्रवचन क्षेत्र में अनूठी कृतियों का सृजन यह सब चित्त में शुद्ध भावों का प्रादुर्भाव हुआ। विदा के क्षणों में
एक सच्चे साधक की मौलिक दैन है। अक्सर श्रद्धा भावों स्टेशन पर मेरी मित्र ने कहा – “पता नहीं इस महात्मा में | के बादल उमड़-घुमड़ कर बरस ।। चाहते हैं आपके श्री कोई चुम्बकीय आकर्षण है कि जीवन में प्रथम वार जो
चरणों में ताकि चित्त की सारी मलीनता धुल जाए पर अनुभूति हुई वह अव्यक्त है।
समझ जाते ही न जाने किस रहस्यमय शक्ति से मौन इस घटना के ठीक एक सप्ताह बाद चातुर्मास पर | विस्तृत होने लगता है, मानों कोई शुद्ध आवरण युक्त
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