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________________ जैन संस्कृति का आलोक इन्होंने पूर्वोक्त क्षेत्रों में विहार करके अहिंसा का समर्थ में “पासावञ्चिज्ज" अर्थात् पापित्यीय तथा “पासत्थ" प्रचार किया, जिसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और अर्थात् पार्श्वस्थ के रूप उल्लिखित शब्द पार्श्वनाथ के अनेक आर्य तथा अनार्य जातियाँ उनके धर्म में दीक्षित हो अनुयायियों के लिए प्रयुक्त किया मिलता है। गईं। राजकुमार अवस्था में कमठ द्वारा काशी के गंगाघाट "पार्थापत्यीय" शब्द का अर्थ है पार्श्व की परम्परा के पर पंचाग्नि तप तथा यज्ञाग्नि में जलते नाग-नागनी का अर्थात् उनकी परम्परा के अनुयायी श्रमण और णमोकार मंत्र द्वारा उद्धार की प्रसिद्ध घटना. यह सब श्रमणोपासक। उनके द्वारा धार्मिक क्षेत्र में हिंसा और अज्ञान के विरोध और अहिंसा तथा विवेक की स्थापना का प्रतीक है। अर्धमागधी अंग आगम साहित्य में पंचम अंग आगम भगवती सूत्र, जिसे व्याख्या-प्रज्ञप्ति भी कहा जाता है, में जैनधर्म का प्राचीन इतिहास (भाग १, पृष्ठ ३५६) पापित्यीय अणगार और गृहस्थ दोनों के विस्तृत विवरण के अनुसार, नाग तथा द्रविड़ जातियों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्राप्त होते हैं। इनके सावधानीपूर्वक विश्लेषण से प्रतीत की मान्यता असंदिग्ध थी। श्रमण संस्कृति के अनुयायी होता है कि भगवान् महावीर के युग में पार्श्व का दूर-दूर व्रात्यों में नागजाति सर्वाधिक शक्तिशाली थी। तक्षशिला, तक व्यापक प्रभाव था तथा में पावापत्यीय श्रमण एवं उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पद्मावती, कान्तिपुरी, नागपुर उपासक बड़ी संख्या विद्यमान थे। मध्य एवं पूर्वी देशों आदि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र थे। भगवान पार्श्वनाथ के व्रात्य क्षत्रिय उनके अनुयायी थे। गंगा का उत्तर एवं नाग जाति के इन केन्द्रों में कई बार पधारे और इनके दक्षिण भाग तथा अनेक नागवंशी राजतंत्र और गणतंत्र चिन्तन से प्रभावित होकर सभी इनके अनुयायी बन गये। उनके अनुयायी थे। उत्तराध्ययन सूत्र के तेईसवें अध्ययन .. इस दिशा में गहन अध्ययन और अनुसंधान से आश्चर्यजनक का "केशी-गौतम" संवाद तो बहुत प्रसिद्ध है ही। श्रावस्ती नये तथ्य सामने आ सकते हैं तथा तीर्थंकर पार्श्वनाथ के के ये श्रमण केशीकुमार भी पार्श्व की ही परम्परा के लोकव्यापी स्वरूप को और अधिक स्पष्ट रूप में उजागर साधक थे। सम्पूर्ण राजगृह भी पार्श्व का उपासक था। किया जा सकता है। तीर्थंकर महावीर के माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धी पापित्य परम्परा के श्रमणेपासक थे। जैसा कि कहा भी हमारे देश के हजारों नये और प्राचीन जैनस्मारकों में है - सर्वाधिक तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियों की उपलब्धता भी उनके प्रति गहरा आकर्षण, गहन आस्था और व्यापक ___"समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो प्रभाव का ही परिणाम है। पासावच्चिज्जा समणोवासगा वा वि होत्था (आचारांग २, चूलिका ३, सूत्र ४०१) भगवान् महावीर स्वयं कुछ प्रसंगों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के बाद तथा तीर्थंकर महावीर के पापित्यीयों के ज्ञान और प्रश्नोत्तरों की प्रशंसा करते समय तक पार्श्वनाथ के अनुयायियों की परम्परा अत्यधिक हैं। एक अन्य प्रसंग में वे पार्श्व प्रभु को अरहंत, जीवंत और प्रभावक अवस्था में थी। अर्धमागधी आगमों पुरिसादाणीय (पुरुषादानीय – पुरुष श्रेष्ठ या लोकनायक) | तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी व्यक्तित्व और चिन्तन १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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