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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि जैसे सम्मानपूर्ण विशेषणों से सम्बोधित करते हैं। (पितृव्य) थे। इससे यह स्पष्ट है कि भगवान् बुद्ध का पितृत्व कुल पापित्यीय था। कुछ उल्लेखों से यह भी भगवती सूत्र में तुंगिया नगरी में ठहरे उन पाँच सौ सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध आरम्भ में भगवान् पार्श्व पापित्यीय स्थविरों का उल्लेख विशेष ध्यातव्य है जो की निर्ग्रन्थ परम्परा में दीक्षित हुए थे। किन्तु, बाद में पावपित्यीय श्रमणोपासकों को चातुर्याम धर्म का उपदेश उन्होंने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाया। देते हैं तथा श्रमणोपासकों द्वारा पूछे गये संयम, तप तथा इनके फल आदि के विषय में प्रश्नों का समाधान करते भगवान् बुद्ध के एक जीवन-प्रसंग से यह पता हैं। इन प्रश्नोत्तरों का पूरा विवरण जब इन्द्रभूति गौतम चलता है कि वे अपनी साधनावस्था में पार्श्व-परम्परा से को राजगृह में उन श्रावकों द्वारा ज्ञात होता है, तब जाकर अवश्य सम्बद्ध रहे हैं। अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से वे भगवान् महावीर को प्रश्नोत्तरों का पूरा विवरण सुनाते कहते हैं – “सारिपुत्र, बोधि-प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी, मूंछों हुए पूछते हैं - भंते, क्या पापित्यीय स्थविरों द्वारा का लूंचन करता था। मैं खड़ा रहकर तपस्या करता था। किया गया समाधान सही है? क्या वे अभ्यासी और विशिष्ट उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। ज्ञानी हैं? भगवान् महावीर स्पष्ट उत्तर देते हुए कहते हैं - लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर अहं पि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि भासामि, पण्णवेमि । भिक्षा लेकर खाता था।.... बैठे हुए स्थान पर आकर दिये परूवेमि...। सच्चं णं एसमडे, नो चेव णं हुए अन्न को, अपने लिये तैयार किए हुए अन्न को और आयभाववत्तव्बयाए । अर्थात्, हाँ गौतम ! पापित्यीय निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था। गर्भिणी और स्थविरों द्वारा किया गया समाधान सही है। वे सही उत्तर स्तनपान कराने वाली स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था। यह देने में समर्थ हैं। मैं भी इन प्रश्नों का यही उत्तर देता हूँ। समस्त आचार जैन साधुओं का है। इससे प्रतीत होता है आगे गौतम के पूछने पर कि ऐसे श्रमणों की उपासना से कि गौतम बुद्ध पार्श्वनाथ-परम्परा के किसी श्रमण-संघ में क्या लाभ? भगवान् कहते हैं - सत्य सुनने को मिलता दीक्षित हुए और वहाँ से उन्होंने बहुत कुछ सद्ज्ञान प्राप्त है। आगे-आगे उत्तरों के अनुसार प्रश्न भी निरन्तर किये किया। गये। देवसेनाचार्य (८वीं शती) ने भी गौतम बुद्ध के द्वारा इन प्रसंगों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ में जैन दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख करते हुए तीर्थंकर महावीर के सामने पार्श्व के धर्म, ज्ञान, आचार कहा है - जैन श्रमण पिहिताश्रव ने सरयू नदी के तट पर और तपश्चरण आदि की समृद्ध परम्परा रही है और पलाश नामक ग्राम में श्री पार्श्वनाथ के संघ में उन्हें दीक्षा भगवान् महावीर उसके प्रशंसक थे। दी और उनका नाम मुनि बुद्धकीर्ति रखा। कुछ समय बाद वे मत्स्य-मांस खाने लगे और रक्त वस्त्र पहनकर अपने पालि साहित्य में निर्ग्रन्थों के “वप्प शाक्य" नामक । नवीन धर्म का उपदेश करने लगे। यह उल्लेख अपने श्रावक का उल्लेख मिलता है, जो कि बुद्ध के चूल पिता आप में बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व नहीं रखता, फिर १८० तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी व्यक्तित्व और चिन्तन | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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