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________________ जैन संस्कृति का आलोक अन्वेषण में करता है। उसने ऐसी औषधियों का पता अशांत, पर जब उन केन्द्रों को छोड़कर ऊपर की भूमिकाओं लगाया जिनसे करोड़ों व्यक्तियों के प्राण बच गए। उसने में पहुँचता है तब जीवन के सूक्ष्म तथा शक्तिशाली तत्वों ही परमाणु अस्त्रों का भी पता लगाया जिनसे समस्त के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। सौन्दर्य, प्रेम, आनन्द मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। व्यापारी अपना आदि सात्विक गुणों की अभिव्यक्ति होने लगती है। मनोबल व्यवसाय की वृद्धि में लगाता है, औद्योगिक विचार तथा व्यवहार में एकसूत्रता आ जाती है। पवित्रता, विकास के साथ शोषण के तरीके भी सोचता है। राजनीतिज्ञ नम्रता, सहानुभूति आदि दैवी गुणों का विकास होने एक ओर प्रजा-पालन की बात सोचता है, दूसरी ओर शत्रु लगता है, मन के अन्तर्मुखी होने पर ही सच्ची शक्ति प्राप्त के नाश की। इस प्रकार मनोबल का उपयोग दोनों होती है। साधारण व्यक्ति विषम परिस्थितियों में पड़कर दिशाओं में होता आया है। इसीलिए हमारे ऋषियों ने अपने आपको खो देता है। मानसिक संतुलन नष्ट हो ध्यान को अध्यात्म के साथ जोड़ा । जाता है। समझदार उस समय ध्यान और मानसिक स्थिरता प्रातः जगने से लेकर रात्रि में नींद आने तक हमारे । का अभ्यास करता है। साधक को दृढ़ निष्ठा और एकाग्रता मस्तिष्क को अनेक प्रकार के विचार घेरे रहते हैं। नींद से ध्यान द्वारा जो प्रकाश मिलता है, उससे वह अपनी के बाद भी सपनों में उनका तांता चलता रहता है। बहुत प्रत्येक इच्छा पूर्ण कर लेता है। से विचार जीवन के लिए उपयोगी होते हैं। वे जब आते सभी व्यक्तियों का मानसिक धारतल एक-सा नहीं हैं तो मन में सुख और शांति की अनुभूति होती है, किन्तु । होता। अतः सभी को एक ही प्रकार के ध्यान से लाभ अधिकांश विचार निरर्थक और मन को दुर्बल बनाने वाले नहीं मिल सकता। जो व्यक्ति तमोगुणी है जिनमें अज्ञान होते हैं। की प्रधानता है, उसके चित्त को जागृत करने की आवश्यकता होती है। जिसका चित्त रजोगुणी है उसे शांत करने की ध्यान : प्रकाश एवं उर्जास्रोत आवश्यकता है। जिस व्यक्ति में आसक्ति या राग की ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे ध्यान के द्वारा प्राप्त न प्रधानता है उसे अनासक्ति का अभ्यास करना होगा और किया जा सके। ऐसा कोई रोग नहीं, जिसे ध्यान के द्वारा जिसमें द्वेष वृत्ति की प्रधानता है उसे मित्रता का अभ्यास दूर न किया जा सके। विधिपूर्वक किया गया ध्यान हृदय करना होगा। अहंकारी को विनय सीखना चाहिए और को शुद्ध करता है और दृष्टि को निर्मल बनाता है। ध्यान जो आत्म-सम्मान खो चुका है उसे निज-शक्ति की पहचान ऊँचे उड़ने के लिए पंख प्रदान करता है और भौतिक जगत् करा होगी। जो अशांत है उसे शांति की आवश्यकता है की संकुचित परिधियों से ऊपर उठने का सामर्थ्य देता है। और जो निष्क्रिय बना हुआ है उसे खड़ा होने की। जब ध्यान के निरंतर अभ्यास से हम अपने दुःखों और कष्टों से । हम अपने प्रिय-पात्र का चित्र देखते हैं (जो वास्तव में मुक्ति पा सकते हैं। कागज का टुकड़ा होता है) उसे देखते ही ऐसी अनुभूति ___ मानव शरीर में कुछ ऐसे केन्द्र हैं जो चेतना के होती है जैसे सामने बैठा हो, तदनुसार सारी चेष्टाएँ बदल विभिन्न स्तरों को प्रगट करते हैं। जब मन नीचे के केन्द्रों जाती हैं। ध्वज केवल कपड़े का टुकड़ा है किन्तु जब पर अधिष्ठित होता है तो क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि विचार उसके साथ राष्ट्रीय अस्मिता जुड़ जाती है तो हम उसकी घेर लेते हैं। शरीर अस्वस्थ रहने लगता है और मन प्रतिष्ठा में मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। ध्यान और अनुभूति ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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