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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
नहीं है। उसकी खोज हमारी अपनी ही खोज है। धन, परमात्म तत्त्व का चिंतन करना चाहिए। संतान, पत्नी आदि अपने आप में प्रिय नहीं होते वे हमें तृप्त करने के कारण प्रिय लगते हैं किन्तु आत्मा अपने आप
ध्यान में चिंतन आवश्यक में प्रिय है। साथ ही वह आनन्द रूप है। उसे प्राप्त कर लेने ___भगवद् गीता में स्थितप्रज्ञ का स्वरूप बताया गया पर समस्त दुःख मिट जाते हैं। समस्त स्वार्थ पूर्ण हो जाते है, उसका ध्यान करने से मन में दृढ़ता आती है। काम, हैं। उसके साक्षात्कार से बढ़कर कोई स्वार्थ नहीं है। इस ___ क्रोध, राग-द्वेष, लोभ आदि विकार शांत होते हैं। चित्त प्रकार पुनः-पुनः चिंतन करने पर भावना दृढ़ होती है और स्थिर और निर्मल बनता है। आत्म ज्योति प्रगट होती है। एक दिन साक्षात्कार हो जाता है। साधना जगत् में इस ध्यान में निन्नलिखित बातों का चिंतन करना चाहिए - प्रक्रिया को ध्यान कहा जाता है।
जब समस्त कामनाएं शांत हो जाती है तो मन में किसी
प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होती, मनुष्य अपने ज्ञान में ___ ध्यान में सफलता प्राप्त करने के लिए उसके स्वरूप
तल्लीन रहने लगता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। और प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिए। बिना विचार किया
जिस प्रकार कछुआ समस्त अंगों को समेट लेता है, इसी गया ध्यान अभीष्ट फलदायक नहीं होता। साधक जिस
प्रकार जो व्यक्ति इंद्रियों को समेट लेता है उन्हें बाह्य ध्यान को प्रारम्भ करे निरन्तर उसी का अभ्यास करता
विषयों की ओर नहीं जाने देता, उनकी बुद्धि स्थिर हो रहे । बदलते रहने से यथेष्ट लाभ नहीं मिलता। ध्यान मन
जाती है। समझदार व्यक्ति इन्द्रियों को वश में रखने का में विशेष प्रकार के संस्कार उत्पन्न करने की प्रक्रिया है।
प्रयल करता है। फिर भी वे मन को बलपूर्वक खींचती ये संस्कार तभी उत्पन्न होते हैं, जब निरन्तर एक ही बात
रहती है। उन सबको नियंत्रित करके मन को परमात्मा के का चिंतन किया जाए। एक ही आलम्बन रहने पर वह
ध्यान में लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन् उत्तरोत्तर स्पष्ट होता चला जाता है उसमें दृढ़ता आती है।
के शब्दों में – “ध्यान चेतना की वह अवस्था है जहाँ आँखें बंद करने पर भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे सामने
समस्त अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं, बैठा हो । वास्तविक लाभ उठाने के लिए आवश्यक है
विचारों में सामंजस्य आ जाता है, परिधियाँ टूट जाती हैं कि ध्यान में प्रतिपादित प्रत्येक शब्द को समझकर मन में
और भेद-रेखाएं मिट जाती हैं। जीवन और स्वतंत्रता की उतारने का प्रयल किया जाए। महाकवि कालिदास ने
अखण्ड अनुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता। अपने 'कुमारसंभव' में सार्वभौम सत्ता के रूप में ईश्वर का
संकुचित जीवात्मा विराट् सत्ता में विलीन हो जाता है। चित्रण किया है। उसका ध्यान करने से विश्व के कणकण में परमात्मा की अनुभूति होने लगती है। प्रत्येक ध्यान का सम्बन्ध किससे? हलचल में उसकी हलचल अनुभव होती है। साधक का साधारणतया ध्यान का सम्बन्ध आत्मा, ईश्वर आदि उस महासत्ता के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। वह उसकी अतीन्द्रिय तत्त्वों के साथ जोड़ा जाता है किन्तु लौकिक शक्ति को अपनी शक्ति समझने लगता है। ध्यान में ज्यों- जीवन में भी उसकी उतनी ही उपयोगिता है जितनी ज्यों आगे बढ़ता है दुर्बलताएं और दुःख दूर होते जाते । आध्यात्मिक जीवन में । हम व्यायाम द्वारा शारीरिक शक्ति है। अज्ञान का अंधकार मिटता चला जाता है और प्राप्त करते हैं उसे अच्छे या बुरे किसी भी कार्य में लगाया परमात्मा की ज्योति चमकने लगती है। ध्यान में हमें जा सकता है। वैज्ञानिक अपने चिंतन का उपयोग नवीन
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ध्यान और अनुभूति
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