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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की __ अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ
0 महेन्द्रकुमार रांकावत (M.A.)
जैन साधना एवं योग का क्षेत्र अतीव विस्तृत है। अनेक आचार्यों ने इस पर अपना मनोचिंतन प्रस्तुत किया है। आचार्य हरिभद्रसूरी का स्थान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। शोधार्थी महेन्द्रकुमार रांकावत प्रस्तुत कर रहे हैं - आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा वर्णित आठ योग दृष्टियों का विश्लेषण !
- संपादक
स्वनामधन्य आचार्य हरिभद्रसूरि अपने युग के महान् चतुर्दश गुण-स्थान के रूप में किया गया है। आचार्य प्रतिभाशाली विद्वान् तथा मौलिक चिन्तक थे। वे बहुश्रुत हरिभद्र ने आत्मा के विकास-क्रम को योग की पद्धति पर थे, समन्वयवादी थे, माध्यस्थ-वृत्ति के थे। उनकी अनुपम एक नये रूप में व्याख्यायित किया। उन्होंने इस क्रम को। प्रतिभा और विलक्षण विद्वता उन द्वारा रचित आठ योगदृष्टियों के रूप में विभक्त किया, यथा - मित्रा अनुयोगचतुष्टय विषयक धर्मसंग्रहणी (द्रव्यानुयोग), तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा तथा परा।' क्षेत्रसमास-टीका (गणितानुयोग), पंचवस्तु, धर्मबिन्दु (चरण
उन्होनें उन्हें संक्षेप में परिभाषित करते हुए लिखा है करणानुयोग), समराइच्चकहा (धर्मकथानुयोग) तथा
___ - "तृण के अग्निकण, गोमय (गोबर) या उपले के अग्निकण, अनेकान्तजयता (न्याय) का एवं भारत के तत्कालीन
___ काठ के अग्निकण, दीपक की प्रभा, रत्न की प्रभा, तारे की दर्शनशास्त्रों से संबद्ध षड्दर्शन-समुच्चय आदि अनेक ग्रंथों
प्रभा, सूर्य की प्रभा तथा चन्द्र की प्रभा के सदृश साधक की से प्रकट है। योग के संबन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा है,
दृष्टि आठ प्रकार की होती है। वह न केवल जैनयोग साहित्य में वरन् आर्यों के योग विषयक चिन्तन में एक निरुपम मौलिक वस्तु है। उन्होंने
वे दृष्टियाँ इस प्रकार हैं - योग पर 'योग दृष्टि समुच्चय' तथा 'योगबिन्दु' नामक दो १. मित्रा दृष्टि पुस्तकें संस्कृत में एवं ‘योगशतक' और 'योगविंशिका'
तृणों या तिनकों की अग्नि नाम से अग्नि तो कही नामक दो पुस्तकें प्राकृत में रची, जिनमें योगदृष्टि समुच्चय
जाती है, पर उसके सहारे किसी वस्तु का स्पष्ट रूप से का मौलिक चिन्तनात्मक उद्भावना की दृष्टि से अत्यन्त
दर्शन नहीं हो पाता। उसका प्रकाश क्षण भर के लिए महत्वपूर्ण स्थान है। यह प्रसादपूर्ण प्राञ्जल संस्कृत में दो
होता है, फिर मिट जाता है। बहुत मंद, धुंधला और सौ अट्ठाईस अनुष्टुप् छन्दों में है। आचार्यवर ने इसमें
हल्का होता है। मित्रा दृष्टि के साथ भी इसी प्रकार की नितान्त मौलिक और अभिनव चिन्तन दिया है।
स्थिति है। उसमें बोध की एक हल्की-सी ज्योति एक जैन शास्त्रों में आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन झलक के रूप में आती तो है, पर वह टिकती नहीं।
१. योगदृष्टि समुच्चय १३ २. योगदृष्टि समुच्चय १५
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जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ |
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